नई दिल्ली ,भारत की आजादी के इतिहास में हमारे बहुत सारे क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने भाग लिया था, मगर उन सबमें आजादों के आजाद, चंद्रशेखर आजाद का नाम बड़ी श्रद्धा और सम्मान से लिया जाता है।
चंद्रशेखर आजाद जी की जयंती पर स्वतंत्र नेता रामजी पांडे ने कहा कि आजादी के संग्राम में देश की आजादी के लिए उनका कोई सानी नहीं है। 1921 के असहयोग आंदोलन में 15 साल के सत्याग्रही से अदालत ने सवाल किया कि तुम्हारा क्या नाम है? इस पर इस सत्याग्रही बालक ने जवाब दिया था, "आजाद, पिता का नाम स्वाधीनता, और घर जेलखाना।" इन जवाबों से चिढ़कर, मजिस्ट्रेट ने इस बालक को 15 बेंतों की सजा दी थी, तो हर बेंत लगने पर इस बालक ने "महात्मा गांधी की जय" का नारा लगाया था। यही बालक आगे चलकर आजाद नाम से विश्व प्रसिद्ध हुआ। इनका नाम चंद्रशेखर आजाद था।
मध्य प्रदेश के भावरा ग्राम में 23 जुलाई 1906 को पैदा हुए इस बालक की मां का नाम जगरानी देवी और पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था। 1922 में यह बालक क्रांतिकारी पार्टी में प्रवेश करता है। अपनी लगन, अनुशासन और भारत को आजाद कराने के लक्ष्य के कारण हिंदुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ के चेयरमैन, नौ साल तक फरारी का जीवन व्यतीत करते हैं और अपने दल के उद्देश्यों को अबाध गति से आगे बढ़ाते हैं। उनकी समझबूझ, सतत चौकसी, और सतर्कता उन्हें आजाद रखती है और वे कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए और अंततः 27 फरवरी 1931 को ऐल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद में अंग्रेजों से जंग करते हुए भारत माता की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
महान क्रांतिकारी और महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद, स्पष्टवादी, कट्टर सिध्दांतवादी और तय किए गए फैसलों को सख्ती से लागू कराने वाले सेनापति थे। उनका कहना था कि हमारा दल आदर्शवादी क्रांतिकारियों का दल है, देशभक्तों का दल है, हत्यारों का, डकैतों का नहीं। उनके दिल में समस्त मानवजाति के लिए श्रध्दा और आदर का अगाध भंडार था। वे सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थे। उनकी क्रांति का उद्देश्य, मानव मात्र के लिए, सुख और शांति का वातावरण तैयार करना था। वसुधैव कुटुम्बकम ही उनका उद्देश्य था। वे किसी व्यक्ति विशेष के विरोधी नहीं थे।
आजाद की मान्यता थी कि जिसकी आंखों में सबके लिए आंसू नहीं और जिसके दिल में सबके लिए प्यार नहीं, वह शोषक और अन्यायी व अत्याचारी से घृणा भी नहीं कर सकता और अंत तक उससे जूझ भी नहीं सकता। वे आला दर्जे के संगीत प्रेमी थे।
आजाद सबसे ज्यादा पढ़ने लिखने का आग्रह करते थे। कार्ल मार्क्स की विश्वविख्यात पुस्तक "कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो", उन्होंने अपने साथी शिववर्मा से शुरू से आखिर तक सुनी थी। वे उस समय के सवालों और सैध्दांतिक सवालों पर हुई बहसों में जमकर हिस्सा लेते थे। शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता और वर्ग रहित समाज की स्थापना आदि समाजवाद की बातों से वे मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे। आजाद अपने को समाजवादी कहलाने में सबसे ज्यादा फक्र महसूस किया करते थे।
उन्होंने गरीबी, भुखमरी, मजदूरों और मेहनतकशों की दुर्दशा अपनी आंखों से देखी, समझी और सहन की थी। अतः इनके खात्मे के लिए वे अपने विचारों में दृढ़तम थे। इसी कारण वे मजदूरों और किसानों के राज्य के सबसे बड़े हिमायती थे। आजाद अपने दल के सेनापति ही नहीं, बल्कि अपने समाजवादी परिवार के अग्रज भी थे, अतः अपने साथियों की दवाई, कपड़ों, जूतों, पैसे, हथियारों आदि छोटी छोटी जरूरतों का ध्यान रखते थे।
वे फासीवाद और साम्राज्यवाद के कट्टर दुश्मन थे। वे मानते थे कि फासीवाद क्रांति के पहियों को पीछे खींचता है और साम्राज्यवाद की सत्ता और ताकत को मजबूती प्रदान करता है और जनता की आंखों में धूल झोंककर पूंजीवाद को मरने से बचाता है। फासीवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवादी व्यवस्था का विनाश करके, समाजवादी गणतंत्र कायम करना उनके जीवन का परम उद्देश्य था। वे ताउम्र इसी ख्वाब के लिए जिए और इसी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
आजाद और उनके हिंदुस्तानी समाजवादी गणतंत्र संघ के तमाम सदस्य, अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों की हकीकत को जान पहचान गए थे। इसीलिए उनके नारे बदल गए थे जैसे "साम्राज्यवाद मुर्दाबाद" और "इंकलाब जिंदाबाद।" वे भारत की जनता का कल्याण, उस समय की व्यवस्था के क्रांतिकारी परिवर्तन के बाद, किसानों मजदूरों की राजसत्ता और सरकार में देखते थे। वे साम्राज्यवादी निजाम का पूर्ण खात्मा करना चाहते थे, इसीलिए भगतसिंह और उनके साथी खुलेआम और अदालत में "साम्राज्यवाद मुर्दाबाद" और "इंकलाब जिंदाबाद" जैसे नारे लगाते थे।
साम्राज्यवाद, कैसे फासीवादी मानसिकता और नीतियां हासिल कर लेता है, इसका अंदाज उन्हें था। फासीवाद जनता को गाफिल कर देता है, जनता को अपने कल्याण की नीतियों से दूर ले जाता है, भाई को भाई से लडाता है, उसके सोचने की शक्ति में घुन लगा देता है, उसकी एकता को पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देता है और उसे पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का आसान शिकार बना देता है। उनकी और उनके साथियों की दूर दृष्टि कितनी गजब की और सटीक थी, उसका नमूना हम आज देख रहे हैं। फासीवाद किन जालिमाना तरीकों से साम्राज्यवाद की सेवा करता है और जनता को बांटकर आपस में लड़वाता है, इसका बहुत ही सटीक नमूना, हम आज अपने देश में देख रहे हैं, जिसे मोदी सरकार बखूबी अंजाम दे रही है और जनता की एकता तोड़कर देश और दुनियाभर के लुटेरे पूंजीपतियों की मदद कर रही है और भारत को उनका एक चारागाह बना दिया है।
परिस्थितियों, साजिश, बेइमानी, मुखबिरी और अपने परिचित साथी के विश्वासघात का खेल देखिए कि आजाद के पिताजी का नाम पंडित सीताराम तिवारी था। दल का यानी "एचएसआरए" के चंदे का पैसा, उन्हीं के दल के परिचित वीरभद्र तिवारी के पास जमा था। अपनी गतिविधियों के अंजाम देने के लिए चंद्रशेखर आजाद यह पैसा लेने ही वीरभद्र तिवारी के यहां गए थे और ऐल्फ्रेड पार्क में पैसों के आगे का इंतजार कर ही रहे थे कि पैसा तो आया नहीं, अंग्रेजों की पुलिस जरूर आ गई, जिससे आजाद को अकेले ही लड़ना पड़ा और लड़ते लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गए। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अंग्रेज जीते जी, आजाद को हाथ न लगा सके, वे शहीद होने तक "आजाद" ही रहे।