lakhimpur kheri|| पहले ऐसे होते थे गांव के ब्याह


नई दिल्ली पहले गाँव में न टेंट हाउस थे और न कैटरिंग, बल्कि थी सिर्फ सामाजिकता। गाँव में जब कोई शादी होती तो घर-घर से चारपाई आ जाती, हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता और गाँव की महिलाएं एकत्र होकर खाना बना देतीं। औरतें ही मिलकर दुल्हन तैयार कर देतीं और हर रस्म का गीत गाती जातीं।

तब DJ अनिल और DJ सुनील जैसी चीजें नहीं होतीं थीं, और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने। गाँव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने में इकट्ठे रहते थे। हंसी-मजाक चलता रहता और समारोह का कामकाज भी। शादी में बारातियों के खाने से पहले गाँव के लोग खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्जत का सवाल होता था। गाँव की महिलाएं गीत गाती और अपना काम करती रहतीं। सच कहूँ तो उस समय गाँव में सामाजिकता के साथ हमदर्दी भी होती थी।

खाना परोसने के लिए गाँव के लौंडों का गैंग समय पर इज्जत सम्हाल लेता था। कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते, जिसमें एक कॉमन गाना बजता होता - "मैं सेहरा बांधकर आऊंगा, मेरा वादा है" और दूल्हे के आस-पास नाऊ हमेशा रहता।

शादी की रस्में पुरानी थीं, जैसे कोहबर, जिसमें दुल्हा-दुल्हन को अकेले में दो मिनट बात करने का मौका दिया जाता था। फिर सभी मिलकर रसगुल्ले का कण दूल्हे के होठों तक पहुंचाते।

शादी के बाद दूल्हा का साक्षात्कार विवाहिता की महिलाओं से होता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार मिलते। इस प्रक्रिया में कुछ अनुभवी महिलाएं दूल्हे का खास मेकअप भी देखती और समीक्षा करतीं, जिसे दूल्हा दिखाई कहते थे।

फिर बुजुर्गों द्वारा माड़ौ हिलाने की प्रक्रिया होती, जिसमें बच्चों को खुश किया जाता था। विदाई के समय नगद नारायण की नोटें बांटी जाती थीं। इस सब का साक्षात्कार हमें अद्भुत अनुभव देता था।

लेकिन आज की पीढ़ी इस अनुभव से वंचित है। लोग बदल रहे हैं, परंपरा भी बदल रही है। यह सब बदलाव हमें धीरे-धीरे दिखाई देता है कि वास्तविक आनंद किसी और चीज में है, जो आजकल की पीढ़ी को अनुप्राणित नहीं करता। अतः, यह अनुभव धीरे-धीरे बिलुप्त हो रहा है।