हनुमान चालीसा एक प्रसिद्ध चालीसा है जिसमें भगवान श्री हनुमान की महिमा, गुण, और उनके शक्तिसंचारक स्वरूप का वर्णन किया गया है। यह कविता तुलसीदास जी द्वारा रची गई है और उनके महाकाव्य "रामचरितमानस" के एक अद्वितीय भाग के रूप में प्रस्तुत की गई है।
चालीसा का भावार्थ:
हनुमान चालीसा में 40 श्लोक होते हैं, जिनके माध्यम से हनुमान जी की महत्वपूर्ण गुणों और भक्ति की महत्वपूर्णता का वर्णन किया गया है। चालीसा के प्रत्येक श्लोक में हनुमान जी के भक्तों को उनकी सहायता, रक्षा, और पुनर्जीवन में सहायता करने की प्रार्थना होती है। यह चालीसा भक्ति और उत्कृष्टता की प्रेरणा देने वाली होती है और उन लोगों के दिल में पवित्र आदर्शों को स्थापित करती है जो आदर्श जीवन जीना चाहते हैं।
महत्वपूर्ण उपदेश:
हनुमान चालीसा के माध्यम से हमें कई महत्वपूर्ण उपदेश प्राप्त होते हैं:
भक्ति का मार्ग: चालीसा भक्ति का महत्वपूर्ण संदेश देती है। हनुमान जी की भक्ति के माध्यम से हम दिव्यता और समर्पण की भावना को सीखते हैं।
शक्ति और साहस: हनुमान जी का पराक्रम और साहस हमें उत्कृष्टता की ओर प्रेरित करता है। वे भक्तों को साहसिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाने में सहायक होते हैं।
सेवा का भाव: हनुमान चालीसा व्यक्ति को सेवा और निःस्वार्थ भावना का मार्ग दिखाती है।
राम भक्ति: यह कविता भगवान राम के प्रति अपने श्रद्धा और समर्पण की भावना को प्रकट करती है।
हनुमान चालीसा का पाठ:
श्रीगुरु चरण सरोज रज निजमन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
राम दूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥
महावीर विक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुण्डल कुंचित केसा॥
हाथ बज्र औ ध्वजा विराजै।
काँधे मूँज जनेऊ साजै॥
शंकर सुवन केसरीनन्दन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन॥
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लँक जरावा॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सवारे॥
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुवीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई॥
सहस बदन तुम्हरो यश गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कवि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥
तुम्हरो मन्त्र विभीषण माना।
लंकेश्वर भए सब जग जाना॥
युग सहस्र योजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गए अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब सुख लहैं तुम्हारी सरना।
तुम रच्छक काहू को डर ना॥
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें काँपै॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै॥
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम वचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिनके काज सकल तुम साजा॥
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोई अमित जीवन फल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥
अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै॥
अंत काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्व सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महासुख होई॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥
दोहा:
पवनतनय संकट हरण मङ्गल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥