संवाददाता
ग़ाज़ियाबाद। मीडिया 360 लिट्रेरी फाउंडेशन के "कथा संवाद" को संबोधित करते हुए सुप्रसिद्ध लेखक, कवि व अनुवादक सुशांत सुप्रिय ने कहा कि "कथा संवाद" जैसे कार्यक्रम हमारी सोच और कहन को विस्तार देने के साथ नवांकुरों को गढ़ने की परंपरा भी निभाते हैं। इंटरनेट के दौर में कहानी की वाचिक परंपरा को पूर्णतः लोप हो गया है। आभासी दुनिया के विस्तार में साहित्य गौण हो रहा है, ऐसे में इस पर मंडरा रहे खतरे से, ऐसी कार्यशालाओं के जरिए ही साहित्य के अस्तित्व को बचाया जा सकता है। श्री सुप्रिय ने अपनी रचना "खोया हुआ आदमी" पर श्रोताओं की भरपूर सराहना बटोरी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अवधेश श्रीवास्तव ने कहा कि वैश्वीकरण के दौर में बढ़ते बाजारवाद ने साहित्य को पीछे धकेल दिया है। उन्होंने कहा कि यहां पढ़ी गई अधिकांश कहानियां स्त्री-पुरुष के संबंधों के दायरों में घूम रही हैं। जो इस बात का प्रतीक है कि प्रेम आज भी एक शाश्वत सत्य है। जिसे आपको साहित्य में भी स्वीकार करना पड़ेगा। यह और बात है कि लेखक उसका ट्रीटमेंट कैसे करता है।
होटल रेडबरी में आयोजित "कथा संवाद" का शुभारंभ शकील अहमद की कहानी के मसविदे "बन्ने मियां की दुल्हनिया" से हुआ। इसका कथानक एक विधुर के पुनर्विवाह के प्रयासों के इर्दगिर्द घूमता है। लेखक शकील अहमद के प्रथम लेखकीय प्रयास की एक सुर से सराहना की गई। सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुभाष चंदर ने मनु लक्ष्मी मिश्रा की कहानी "निर्णय" को मौजूदा दौर में दांपत्य जीवन पर गहरा रहे संकट को रेखांकित करने वाली रचना बताया। सुरेन्द्र सिंघल ने कहा कि हमारे टीवी सीरियल के कथानक विवाहेत्तर संबंधों के पैरोकार नजर आते हैं। ऐसे में कथा नायिका के निर्णय और साहस को स्वीकार किया जाना चाहिए। फाउंडेशन के अध्यक्ष शिवराज सिंह की शीर्षक विहीन कहानी के प्लॉट पर चर्चा करते हुए रंगकर्मी अनिल शर्मा ने कहा कि शादीशुदा दंपति के बच्चे न होना बुजुर्ग अभिभावकों की चिंता का बड़ा विषय बनता जा रहा है। ऐसे में एक बच्चे की नीति को और बढ़ावा मिल रहा है। हमारी यह प्रवृत्ति संतान के रूप में बालक की चाह को निरंतर प्रबल करती जा रही है। डॉ. प्रीति कौशिक ने कहानी का शीर्षक "डर" सुझाते हुए कहा कि कहानी बेटी बचाओ अभियान का बेहतरीन उदाहरण पेश करती है। पत्रकार सुभाष अखिल की लघु उपन्यासात्म कथा "बाजार बंद" पर भी गंभीर विमर्श हुआ। कथा के तकनीकी पक्ष को लेकर हुए विमर्श पर टिप्पणी करते हुए अवधेश श्रीवास्तव ने कहा कि इस तरह के गंभीर आयोजनों को हमें टीवी डिबेट जैसे निम्नस्तर तक जाने से बचाए रखना है।
लेखक रविन्द्र कांत त्यागी ने कहा कि लेखक बहुत संवेदनशील होता है। कोई भी आलोचना उसके मन मस्मिष्क पर लंबे समय तक दर्ज रह सकती है। विमर्श के इस क्रम में हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि आलोचना लेखक की रचनाधर्मिता को हानि न पहुंचाए। पहाड़ की स्त्री के संघर्ष और स्मिता की रक्षा पर आधारित डाॅ. पुष्पा जोशी की कहानी "रमोती" पर चर्चा करते हुए रंगकर्मी अक्षयवरनाथ श्रीवास्तव ने कहा कि कहानी में आ रही स्थूलता कहानी में और रंग भरने की मांग करती है। उभरते हुए रचनाकार देवेंद्र देव के कथा प्रयास "अहिल्या" पर आलोक यात्री, डॉ. बीना शर्मा, वागीश शर्मा, लीना सुशांत, बी. एल. बतरा सहित अन्य लोगों ने भी प्रतिक्रिया व्यक्त की। बौद्धिक विमर्श को बढ़ावा देते हुए तेजवीर सिंह ने कहा कि आज भी अधिकांश कहानियां दलित, आदिवासी, हाशिए पर पहुंची स्त्री और वर्ग संघर्ष पर ही टिकी हैं। उन्होंने कहा कि हमें कहानी को उसके दायरे से बाहर लाने के लिए भी खड़ा होना पड़ेगा। कार्यक्रम का संचालन आलोक यात्री ने किया। विमर्श में गोविंद गुलशन, अमर पंकज, प्रमोद कुमार कुश 'तन्हा', सुशील शर्मा, रवि शंकर पाण्डेय, पराग कौशिक, देवेंद्र गर्ग, सौरभ कुमार, अंजलि, अभिषेक कौशिक, विनोद कुमार विनय, साजिद खान, ओंकार सिंह, दर्शना अर्जुन 'विजेता' सहित बड़ी संख्या में लोगों ने हिस्सेदारी निभाई।