रामजी पांडे
नई दिल्ली कोविड-19 ने दुनिया भर में फिल्म देखने में डिजिटल परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज कर दिया है। महामारी ने लोगों को अपने घर के अंदर बंद करने के लिए मजबूर कर दिया, ऐसे में ओटीटी प्लेटफार्म के माध्यम से घर पर दर्शकों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। लेकिन सिनेमाघरों से ओटीटी में सिनेमा देखने के माध्यम में इस विशाल परिवर्तन में, क्या कुछ भौगोलिक क्षेत्रों, लोगों और संस्कृतियों को पूरी तरह से छोड़ दिया गया है? क्या ओटीटी पारंपरिक सिनेमा थिएटरों के लिए मौत की घंटी बजा रहा है? क्या ओटीटी और स्क्रीन एक साथ रह सकते हैं?
मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के 17वें संस्करण के दौरान आयोजित मास्टर क्लास में ये कुछ बहुत ही प्रासंगिक प्रश्नों उत्तर दिए गए और इन पर चर्चा की गई। रिजवान अहमद, निर्देशक मीडिया सेंटर, मन्नू , हैदराबाद ने मास्टर क्लास का नेतृत्व किया। वह फिल्म टेलीविजन और दृश्य-श्रव्य संचार के लिए अंतर्राष्ट्रीय परिषद (आईसीएफटी), पेरिस और अंतर्राष्ट्रीय वृत्तचित्र संघ, लॉस एंजिल्स के पूर्णकालिक सदस्य हैं।
रिजवान अहमद ने कहा कि सिनेमा इस दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का वैश्विक जन्मसिद्ध अधिकार है। उन्होंने कहा, “दुनिया के कई हिस्सों में सिनेमा के नए प्लेटफॉर्म के विस्तार का समर्थन करने के लिए वांछित बुनियादी ढांचा नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती संसाधनों का असमान वितरण है। यदि आप भारत की स्थिति पर विचार करें, तो केवल 47 प्रतिशत दर्शकों के पास ही इंटरनेट की पहुंच है। बाकी 53 प्रतिशत आबादी को ओटीटी पर उपलब्ध समृद्ध सामग्री को देखने का पूरा अधिकार है।" उन्होंने सुझाव दिया कि ओटीटी कंपनियों को बहिष्कृत ग्रामीण आबादी के बड़े बहुमत तक पहुंचने के लिए एक पद्धति पर काम करने और अलग व्यवसाय मॉडल बनाने की जरूरत है।