गाजियाबाद। मीडिया 360 लट्रेरी फाउंडेशन की ओर से आयोजित महफ़िल ए बारादरी को संबोधित करते हुए वरिष्ठ कवि अशोक मैत्रेय ने कहा कि कविता ऐसा संवाद है जो जीवन में छाए कुहासे और सन्नाटे को तोड़ती है। कविता रेशम की ऐसी डोर है जो मानव और प्रकृति को आत्मीय रिश्ते में बांधती है। आज के परिवेश में जब फूल खुशबू के बजाए अंगारे बांटते हों, गमलों में तुलसी की जगह नागफनी पनपती हो, ऐसे हालातों में केवल कविता है जो जीवन को बचा सकती है। निसंदेह यह कहा जा सकता है कि जिंदगी एक घबराया हुआ खरगोश बन गई है, कविता है जो उसे अपने आगोश में लेती है, आश्वस्त करती है, कहती है- मैं हूं ना।
नेहरू नगर स्थित सिल्वर लाइन प्रेस्टीज स्कूल में आयोजित कार्यक्रम में बतौर अध्यक्ष अपने वक्तव्य में श्री मैत्रेय ने कहा कि यह कविता ही है जो हमें पराजित और हतप्रभ नहीं होने देती। विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष में आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि इस मंच पर बह रही गंगा जमुना की रसधार हमारे भाईचारे की मिसाल है। अपनी पंक्तियों पर वाहवाही लूटते हुए उन्होंने कहा 'एक खत हिंदी और उर्दू के नाम लिखता हूं, कर्जदार हूं दोनों का सरेआम लिखता हूं।' कार्यक्रम के मुख्य अतिथि शरफ़ नानपारवी ने अपने अशआर से महफिल लूट ली। उन्होंने फरमाया 'मोहब्बत का कानों में रस घोलते हैं, यह उर्दू जुबां है जो हम बोलते हैं। फले फूले कैसे यह गूंगी मोहब्बत, न वो बोलते हैं ना हम बोलते हैं। हसीनों से कोई तिजारत ना करना, यह कम नापते हैं यह कम तौलते हैं। हजार आफतों से बचे रहते हैं, जो सुनते ज्यादा हैं कम बोलते हैं। शरफ़ उनसे अब हो मुलाकात कैसे, वह दरवाजा दिन में कम खोलते हैं।'
बारादरी की संस्थापक डॉ. माला कपूर 'गौहर' ने कहा 'उसने जब पलकें झुकाई तो हुआ यह एहसास, शायद अब लफ्ज़ ए वफा जान लिया है उसने। बंद दरवाजा किया देखकर उसने मुझको, फिर दरीचे से मगर झांक लिया उसने। उसने ख़त मेरा नहीं पढ़ा तसल्ली है मुझे, मुतमइन हूं मेरा खत पढ़ तो लिया उसने।'
बारादरी की संरक्षिका उर्वशी अग्रवाल 'उर्वी' ने कहा 'मैं शबरी हूं राम की चखती रहती बेर, तकती रहती रास्ता हुई कहां पर देख। कितना अचरज भरा शबरी का ये काम, बेरों पर लिखती रही दातों से वो राम।' सुप्रसिद्ध शायर मासूम गाजियाबादी ने फरमाया 'ये ख़राशें तो हाथों की मिट जाएंगी भूल जाऊंगा चाबुक के सारे निशां, टूटी छत,ठंडा चूल्हा,ओ फूटा तवा, मुफ़लिसी की मिसालों के काम आएंगे। मैं हूं मज़दूर लेकिन मेरी नस्ल भी कल को मज़दूर हो ये ज़रूरी नहीं, ज़ुल्म सहकर जो लब आज ख़ामोश हैं कल यक़ीनन सवालों के काम आएंगे।' संस्था के अध्यक्ष गोविंद गुलशन ने फरमाया 'भूल जाता है बशर जिस्म का फ़ानी होना, हमने देखा है मगर बर्फ़ का पानी होना।बहते बहते मैं भी पानी से अलग हो जाऊंगा, एक तिनका हूं रवानी से अलग हो जाऊंगा। लफ़्ज़ हूं तरतीब से मिसरे में मुझको बांध लो, वर्ना में अपने म'आनी से अलग हो जाऊंगा। मीडिया 360 लिट्रेरी फाउंडेशन 'नव दीफ' सम्मान से सम्मानित सरिता जैन ने कहा 'पैंतरे जब हवा के चलते हैं, सब दीए लड़खड़ा के जलते हैं। उनको भी आईने की आदत है, जो मुखौटा लगा के चलते हैं।' वरिष्ठ शायर सुरेंद्र सिंघल ने कहा 'यह उलजलूल बहस है कहीं न पहुंचेगी, जरा सी देर को खामोश होकर देखते हैं। किताब में रहेंगी तो तोड़ देंगी दम, मोहब्बत को जमीनों में बो कर देखते हैं।' कवयित्री मनु लक्ष्मी मिश्रा ने कहा 'डर से किसी के भला हम लहजा बदल लें क्या, बिल्ली जो रास्ता काट दे तो हम रास्ता बदल दें क्या।' शायरा तरुणा मिश्रा ने फरमाया 'इस तरह दिल में तेरी याद रखी जाती है, जिस तरह चुपके से इमदाद रखी जाती है।' नेहा वैद ने कहा 'उंगलियों के पोर खुरदुरे हुए रुमाल पर, कितनी बार हाथ में सुई चुभी, एक फूल तब खिला रुमाल पर।' रवि पाराशर ने शेर कुछ यूं पढ़े 'दोस्ती का गुमान टूटा है, सर पर एक आसमान टूटा है। फूल अब भी हैं शाख पर लेकिन, फूल का इत्मीनान टूटा है।' निधि सिंह 'पाखी' ने कहा 'खमोशी पहन कर रहा दर्द दिल में, किस तौर गम को जताना नहीं था।' विपिन जैन ने कहा 'भूख जब अपनी जरूरत से आगे बढ़ गई, हमने जहनी तौर पर ही कुछ पका ली रोटियां। मंजू कौशिक ने कहा
'ऐसे मन में समा से गए हो, चोट नज़रों से यूं दे गए हो, जैसे आकाश में चांद तारे, दीप अनगिन जलाके गए हो।' कीर्ति रतन ने बचपन को संबोधित अपनी कविता में कहा 'करवाई जाती है गणना, जन जन की, रात के दूसरे, चौथे पहर भी, शामिल हो जाता है, हर व्यक्ति, तो फिर कहां ग़ायब हो जाती है, गिनती बचपन की क़ूड़ा बीनती, सिक्के गिनती, जिसको बचाने की ख़ातिर, बनाए गए हैं कई क़ानून, दोहरे।'
बी.एल. बतरा 'अमित्र' ने कहा 'माटी से क्यूं उलझे बंदे सांसों का ये खज़ाना है, माटी के तू करे है धंधे, माटी तेरा ठिकाना रे।'
पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों पर चोट करते हुए डॉ. ईश्वर सिंह तेवतिया ने कहा 'कभी तेरहवीं से पहले जब, पुत्रों में झगडे होते हैं, किसे मिला कम किसको ज्यादा, जब अपने दुखडे रोते हैं, खुद पर नाइंसाफी को जब, बढ़ा चढ़ा कर बतलाते हैं, घर के बर्तन भांडे भी जब,
पंचायत में बंटवाते हैं, खाली कुटिया में तब पड़ा, बिछौना अच्छा लगता है जी, कुछ मौकों पर मुझे यकीनन, रोना अच्छा लगता है जी।' रिंकल शर्मा ने कहा 'मैं तेरी मोहब्बत को अपने सीने में सजाए बैठी हूं, उम्मीद ए मोहब्बत में तेरी एक दीप जलाए बैठी हूं।' राजीव सिंघल ने कहा 'दिल से कैसी शरारत हुई है, कुछ कहे बिन अदावत हुई है। महफिल में जब आ गया हूं, जाने फिर क्यों सियासत हुई है।' विजय एहसास में अपने एहसास कुछ यूं बयां किए 'सरहदें सारी पार कर देखूं, तुम कहो मैं भी प्यार कर देखूं। रूह पर कितने घाव आए हैं, जिस्म अपना उतार कर देखूं।' नंदिनी श्रीवास्तव ने कहा हो कहां तुम क्या तुम्हें आवाज मेरी दी सुनाई अब तुम्हें आना ही होगा देने मुझे चिर विदाई तूलिका सेठ ने कहा 'खिलौनों की तरह मां-बाप का दिल तोड़ जाते हैं, जवां होकर बुजुर्गों को अकेला छोड़ जाते हैं। वो क्या चारागिरी का फन दिखाएंगे, जो जमाने को, जो अपनी जिंदगी से फर्ज से मुंह मोड़ जाते हैं।' अनिमेष शर्मा ने फरमाया 'तिश्नगी होटों पे आंखों में उजाले होते, इश्क़ होता तो मेरे दिल पे भी छाले होते। इश्क़ होता तो हर एक शेर शरारा होता, शेर कहने के भी अन्दाज़ निराले होते।' कार्यक्रम का संचालन दीपाली जैन 'ज़िया' ने किया। उन्होंने अपनी नज़्म 'अजनबी रिश्ता' "जाने क्यों अब मुझे सिगरेट की महक भाती है, मय के प्यालों से भी इक ख़ुशबू अलग आती है, तेरे ऐबों में कोई ऐब ही नहीं दिखता, मुझको तो जैसे तेरी लत ही लगी जाती है" पर जमकर दाद बटोरी। महफ़िल में, कुलदीप बरतरिया, अंकुर तिवारी, टेकचंद, आलोक यात्री, प्रताप सिंह, सुभाष चंदर, सुभाष अखिल, अर्चना शर्मा, संजय जैन, श्वेता त्यागी, श्रीबिलास सिंह, आदि ने रचनापाठ किया। इस अवसर पर प्रदीप आवल, रश्मि पाठक, दिनेश दत्त पाठक, सौरभ कुमार, ऋचा सूद, अंजलि, सुशील शर्मा, दीपा गर्ग, निखिल शर्मा, वागीश शर्मा, राकेश सेठ, डॉ. रजत रश्मि मित्तल, सर्वेश मित्तल सुरेश शर्मा अखिल, तिलक राज अरोड़ा, के. के. सिंघल, टी. पी. चौबे, डॉ. नवीन चंद्र लोहनी, अजय पाल नागर, विजेंद्र सिंह, अभिषेक कौशिक, पराग कौशिक, अशहर इब्राहिम, सहित बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी मौजूद थे।