दिनेश त्रिपाठी की कलम से
कर्मों का हिसाब
किसी नगर में एक सेठ रहता था। समय के फेरे से वह अत्यंत गरीब हो गए थे। पुनः समृद्धि के लिए खूब गोपाल सहस्रनाम पाठ, अर्चन बंदन आदि किया करता था।
भगवान् से प्रार्थना करता, प्रभो ! आप कृपा करके मुझे पुनः धन-धान्य से पूर्ण का दें, मैं भूरि भूरि दान, दक्षिणा यज्ञादि, सदाव्रत, साधु-सेवा आदि पुण्य कर्म करूंगा, आपकी सेवा का विस्तार करूंगा।
दयालु भगवान् ने सेठ को दिन-दूना और रात-चैगुना लाभ देकर नगर का सबसे बड़ा सेठ बना दिया।
परंतु वाह रे ! कृतघ्नी ! भगवान् के समस्त उपकारों को भूल कर ऐसा धन मद में चूर हुआ कि भगवान् की सेवा का विस्तार करने की कौन कहे...
उलटे भगवान् को उठाकर ताख में रख दिया और पूजा गृह को अन्न का गोदाम बना दिया। पूर्वकृत संकल्प केवल कल्पना मात्र बनकर रह गये।
‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’ की अजस्र धारा में वह सेठ बह गया।
भगवान् ने सोचा-अच्छा भगत मिला। इसने तो मुझे भी धोखा दे दिया अब तो, इसे शिक्षा अवश्य देनी चाहिए।
ऐसा संकल्प कर प्रभु ने एक साधु का रूप धारण कर दुकान पर आए और राधेश्याम सीताराम की रट लगाई।
सेठ सबेरे-सबेरे उस सन्त के रूप में भगवान् को देखते ही जल भुन गया।
बोला सबेरा होते ही मांगने के लिए आ पहुंचा और अंत में नौकरों द्वारा धक्का दिलाकर साधु वेषधारी भगवान् को बहिष्कृत कर दिया।
भगवान् को अपनी माया की प्रबलता पर हंसी आई तथा जीव के अज्ञान पर क्षोभ भी हुआ और उन्होंने उसे चैतन्य करने के लिए कठोर कदम उठाने का संकल्प लिया।
जब सेठजी स्नान करने गए थे तब तत् क्षण भगवान् उन्हीं का रूप धारण कर वहां आए और आकर उसके बच्चों को, नौकर-चाकरों को सजग कर दिया कि...
एक बहुरूपिया मेरा ही रूप धारण किए हुए इधर को ही आ रहा है, उससे सावधान रहना घर में प्रवेश नहीं करने देना।
उनके लाख सौगंध खाने पर भी विश्वास नहीं करना, यदि जोर करे जो जूतों से मारकर नगर से बाहर कर देना।
ऐसा ही हुआ सेठजी के आते ही बालक, बूढ़े, नौकर-चाकर सब टूट पड़े और अत्यंत तिरस्कार पूर्वक उसे नगर के बाहर कर दिया।
तिरस्कृत सेठजी एक वृक्ष के नीचे बैठकर अपनी तकदीर पर रो रहे थे।
भगवान् पुनः उसी संत के वेष में वहां पहुंचे और उसकी दुर्दषा पर अत्यंत खेद प्रकट करते हुए उन्हें कृपा करके ज्ञानोपदेष किया।
सेठ की आंखें खुली, वह उस साधु वेषधारी भगवान् के चरणों में गिर पड़ा और ‘संपत्ति सब रघुपति के आही’ का संकल्प करते हुए, संत भगवन्त् सेवा व्रत लेकर उसने अपना शेष जीवन हरि स्मरण में बिताया।
तो इस प्रकार हरि से असांचे (झूठे) नहीं होना चाहिए।
प्रभु को दिया हुआ वचन हमें हर हाल में याद रखना चाहिए क्योंकि अंत में इहलोक से परलोक जाने के बाद उसी को हमें अपने कर्मों का हिसाब चुकाना है।
कम से कम उसके साथ तो सांसारिकता से ऊपर रहना चाहिए।
कारण वहां किसी प्रकार का छल, कपट, माया आदि का कुछ नहीं चलता है। अतः हमें हर हाल में भगवान् के प्रति समर्पित और इमानदार होना चाहिए। जो बोयेगा वही पायेगा