ओडिशा के गांव से यूएन पहुंचने वाली अर्चना सोरेंग: deepak tiwari घर की स्थिति ठीक नहीं थी, पिता का साया भी सिर से उठ गया था,12वीं तक तो अंग्रेजी भी नहीं आती थी
रांची.ओडिशा के एक छोटे से गांव से निकलकर संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) तक का सफर करने वाली अर्चना सोरेंग इन दिनों चर्चा में हैं। हाल ही में यूएन चीफ ने उन्हें ‘यूथ एडवाइजरी ग्रुप ऑन क्लाइमेट चेंज’ में शामिल किया है। इसमें कुल सात लोग हैं, जिनमें से एक 24 साल की अर्चना भी हैं। वह क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) पर कई सालों से काम कर रही हैं।
वह ओड़िशा के खड़िया ट्राइबल कम्युनिटी से ताल्लुक रखती हैं। उन्होंने अपने गांव बिहाबंध से स्कूलिंग की। फिर 12वीं राउरकेला और ग्रेजुएशन पटना के वीमेंस कॉलेज से पूरा किया। इसके बाद 2018 में मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टीआईएसएस) से रेग्युलेटरी गवर्नेंस की पढ़ाई की।
यूएन चीफ ने उन्हें ‘यूथ एडवाइजरी ग्रुप ऑन क्लाइमेट चेंज’ में शामिल किया है। इसमें अर्चना सहित कुल सात लोग हैं।
अर्चना कहती हैं कि मेरा संघर्ष यानी मेरे परिवार का संघर्ष, आदिवासी समाज का संघर्ष। इन्हीं की बदौलत मैं पढ़-लिख पाई। अगर वे संघर्ष नहीं करते तो शायद मैं यहां तक नहीं पहुंच पाती। एक समय ऐसा भी था जब हमारे दादा- दादी और नाना- नानी के पास खाने को भी कुछ नहीं था। 2017 में कैंसर से पिता की भी मौत हो गई।
अर्चना बताती हैं कि जब आप छोटे गांव से आते हैं, वो भी आदिवासी समुदाय से, तो संघर्ष करना पड़ता है। कई ऐसी बातें होती हैं जिन्हें अंडरमाइन करके आगे बढ़ना होता है। कई लोगों ने मुझे बहुत कुछ कहा। मुझे बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं आती थी, राउरकेला में प्लस टू करने के दौरान इंग्लिश की वजह से काफी दिक्कत हुई।
अर्चना के मुताबिक आदिवासियों का परंपरागत ज्ञान और उनकी संस्कृति, पर्यावरण संरक्षण और बिगड़ते जलवायु संकट से समाज को बचाने का जरिया बनेगा। उन्होंने इस टॉपिक पर रिसर्च भी किया है, जिसे यूएन ने उनके चयन का पैमाना माना है।
अर्चना बचपन से ही जंगल और जमीन से जुड़ी रहीं हैं। वह लगातार इन विषयों पर सोशल मीडिया और दूसरे न्यूज़ प्लेटफॉर्म पर लिखती रही हैं।
अर्चना बचपन से ही जंगल और जमीन से जुड़ी रहीं हैं। वह लगातार इन विषयों पर सोशल मीडिया और दूसरे न्यूज़ प्लेटफॉर्म पर लिखती रही हैं।
बचपन से ही जंगल, जमीन से रहा जुड़ाव
अर्चना बचपन से ही जंगल और जमीन से जुड़ी रहीं हैं। वो कहती हैं कि मेरे दादा ने जंगल और पर्यावरण सुरक्षा के लिए गांव में एक समिति बनाई थी। वो गांव वालों के साथ मिलकर जंगल की रक्षा करते थे और अपने परंपरागत ज्ञान से पर्यावरण को बचाते थे। मैं भी उनसे सीखती थी। इसके बाद मास्टर्स करने के दौरान मुझे यही सब पढ़ने को भी मिला। तब मैंने सोचा कि जो हमें किताबों में पढ़ाया जा रहा है यह तो हमारा समाज कई पीढ़ियों से करता आ रहा है।
इसके बाद इस विषय में मेरी रूचि बढ़ गई। मैंने इस विषय पर लिखना शुरू किया। दुनिया तक अपनी बात पहुंचाने के लिए मैंने सोशल मीडिया और दूसरे अलग-अलग न्यूज़ प्लेटफॉर्म पर लिखना शुरू किया।
अर्चना ने मुंबई में टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोशल साइंसेस से रेगुलेटरी गवर्नेस में मास्टर किया। वह वहां छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष भी रही हैं।
अर्चना ने मुंबई में टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोशल साइंसेस से रेगुलेटरी गवर्नेस में मास्टर किया। वह वहां छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष भी रही हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक आदिवासी बहुल राज्य में आदिवासियों की संख्या घटी है। 1951 के झारखंड (अविभाजित बिहार) में आदिवासी समुदाय की आबादी 36 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना के मुताबिक यह घटकर 26 प्रतिशत हो गई है। बड़ी संख्या में आदिवासियों का पलायन भी हुआ है, उनके संसाधन भी कम हुए हैं। जिसका असर उनके रीति रिवाजों पर पड़ा है।
इसको लेकर अर्चना कहती हैं कि पर्यावरण बचाने के लिए आदिवासी परंपराएं काफी अहम हैं। हालांकि अब इन परंपराओं को बचाना चुनौती बन गया है। आज भी बड़ी संख्या में आदिवासियों को उनका अधिकार यानी जंगल, जमीन और जीविका नहीं मिली है। अगर उन्हें अधिकार नहीं मिलेगा तो वे अपनी संस्कृति कैसे बचा पाएंगे। वन और प्रकृति उनके जीवन है, उनकी और पहचान है। लेकिन दूसरे लोग प्रकृति को बिजनेस के रूप में देखते हैं।
परंपरागत ज्ञान से कैसे बचेगा पर्यावरण
अर्चना सोरेंग का कहना है कि हमारे पूर्वजों ने अपने पारंपरिक ज्ञान के आधार पर जंगल व प्रकृति को बचाया। अब हमारी बारी है कि हम जलवायु संकट से निपटने की दिशा में काम करें।
अर्चना सोरेंग का कहना है कि हमारे पूर्वजों ने अपने पारंपरिक ज्ञान के आधार पर जंगल व प्रकृति को बचाया। अब हमारी बारी है कि हम जलवायु संकट से निपटने की दिशा में काम करें।
वो कहती हैं, “हमलोग अगर प्लास्टिक पॉल्यूशन को देखेंगे तो ही फर्क समझ में आ जाएगा। आदिवासी प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करते हैं। वो इसकी जगह पत्तल का इस्तेमाल करते हैं। इसी पर खाते हैं। घास की चटाई बनाते हैं और भी बहुत सी चीजें वो बनाते हैं। यह प्लास्टिक पॉल्यूशन का एक अल्टरनेट है जो पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में कारगर साबित होगा।
वह आगे कहती हैं, “अब जंगल में लगने वाली आग को ही ले लीजिए। आदिवासी गर्मी के दिनों में जंगलों के सूखे पत्ते, पत्तियों को झाड़ते हैं और उसे चुनकर विभिन्न कामों में इस्तेमाल करते हैं, ताकि जंगलों में आग न लगे। उन्हें पता है कि जंगलों से कितना वनोपज तोड़ना है, कहां से तोड़ना है, कहां से नहीं तोड़ना है। ताकि जंगल का संतुलन बना रहे। पानी का लेवल बचाने के लिए आदिवासी समाज लंबे समय से अपने परंपरागत ज्ञान से ही वाटर हार्वेस्टिंग करता आ रहा है।
जंगल को बचाना जरूरी है
अर्चना का मानना है कि आदिवासियों की परंपराओं को बचाकर ही क्लाइमेट को ठीक रखा जा सकता है और प्रकृति को नष्ट होने से बचाया जा सकता है।
अर्चना का मानना है कि आदिवासियों की परंपराओं को बचाकर ही क्लाइमेट को ठीक रखा जा सकता है और प्रकृति को नष्ट होने से बचाया जा सकता है।
देश में जंगलों की कटाई तेजी हो रही है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक बीते पांच सालों में (2014-19) एक करोड़ से ज्यादा पेड़ काटे जाने की अनुमति दी गई है। ओडिशा में खनन के नाम पर क्योंझर जिले में 181 हेक्टेयर जंगल काटे जाने हैं। अर्चना इसे लेकर काफी चिंतित हैं, वो कहती हैं कि जंगल को बचाना बहुत जरूरी है।
वो कहती हैं कि आदिवासी गांवों के स्कूल होना चाहिए जहां गांव के स्तर पर स्कूल कमेटी भी होनी चाहिए जिसमें महिलाओं को भी शामिल किया जाए और उन्हें निर्णय लेने का मौका दिया जाए। साथ ही आदिवासी समुदाय को विकास के योजनाओं का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।