स्वाधीन भारत में जिन पत्रकारों ने विशिष्ट पहचान बनाई, उनमें प्रभाष जोशी भी एक हैं। उनका जन्म 15 जुलाई 1937 को म.प्र. के मालवा क्षेत्र में हुआ था। छात्र जीवन से ही वे गांधी, सर्वोदय और विनोबा से जुड़ गये। उन्होंने विनोबा के साथ रहकर भूदान आंदोलन के समाचार जुटाये। फिर उन्होंने इंदौर से प्रकाशित ‘नई दुनिया’ में बाबा राहुल बारपुते की देखरेख में पत्रकारिता के गुर सीखे और भोपाल के ‘मध्य देश’ से जुड़े।
जयप्रकाश नारायण ने जब 1972 में दस्यु माधोसिंह का आत्मसमर्पण कराया, तो प्रभाष जी भी साथ थे। सर्वोदय जगत, प्रजानीति, आसपास, इंडियन एक्सप्रेस आदि में वे अनेक दायित्वों पर रहे। हिन्दी और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। लेखन में वे स्थानीय लोकभाषा के शब्दों का खूब प्रयोग करते थे।
1983 में एक्सप्रेस समूह ने प्रभाष जोशी के संपादकत्व में दिल्ली से ‘जनसत्ता’ प्रकाशित किया। प्रभाष जी ने युवा पत्रकारों की टोली बनाकर उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक काम करने दिया। शुद्ध और साहित्यिक, पर सरल हिन्दी जनसत्ता की विशेषता थी। उसमें साहित्य, कला व संस्कृति के साथ ही सामयिक विषयों पर मौलिक हिन्दी लेख छपते थे, अंग्रेजी लेखकों की जूठन नहीं।
उन्होेंने हिन्दी अखबारों की भेड़चाल से अलग रहकर नागरी अंकावली का ही प्रयोग किया। सम्पादकीय विचार अलग होने पर भी समाचार वे निष्पक्ष रूप से देते थे। इससे शीघ्र ही जनसत्ता लोकप्रिय हो गया। धीरे-धीरे प्रभाष जोशी और जनसत्ता एक-दूसरे के पर्याय बन गये।
कबीर, क्रिकेट और कुमार गंधर्व के शास्त्रीय गायन के प्रेमी होने के कारण वे इन पर खूब लिखते थे। एक दिवसीय कोे 'फटाफट क्रिकेट' और 20 ओवर वाले मैच को उन्होंने 'बीसम बीस' की उपमा दी। जन समस्याओं को वे गोष्ठियों से लेकर सड़क तक उठाते थे। उनका प्रायः सभी बड़े राजनेताओें से संबंध थे। वे प्रशंसा के साथ ही उनकी खुली आलोचना भी करते थे।
उन्होंने आपातकाल का तीव्र विरोध किया। राजीव गांधी के भ्रष्टाचार के विरोध में वी.पी. सिंह के बोफोर्स आंदोलन तथा फिर राममंदिर आंदोलन का उन्होंने साथ दिया। चुटीले एवं मार्मिक शीर्षक के कारण उनके लेख सदा पठनीय होते थे। जनसत्ता में हर रविवार को छपने वाला ‘कागद कारे’ उनका लोकप्रिय स्तम्भ था। वे हंसी में स्वयं को ‘ढिंढोरची’ कहते थे, जो सब तक खबर पहुंचाता है।
राममंदिर आंदोलन में एक समय वे वि.हि.प. और सरकार के बीच कड़ी बन गये थे; पर 6 दिसम्बर, 1992 को अचानक हिन्दू युवाओं के आक्रोश से बाबरी ढांचा ध्वस्त हो गया। उन्हें लगा कि यह सब योजनाबद्ध था। इससे उन्होंने स्वयं को अपमानित अनुभव किया और फिर उनकी कलम और वाणी सदा संघ विचार के विरोध में ही चलती रही। धीरे-धीरे जनसत्ता वामपंथी स्वभाव का पत्र बन गया और उसकी लोकप्रियता घटती गयी। कुछ के मतानुसार भा.ज.पा. ने उन्हें राज्यसभा में नहीं भेजा, इससे वे नाराज थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में कई अखबारों ने प्रत्याशियों सेे पैसे लेकर विज्ञापन के रूप में समाचार छापे, इसके विरुद्ध उग्र लेख लिखकर उन्होंने पत्रकारों और जनता को जाग्रत किया।
प्रभाष जी का शरीर अनेक रोगों का घर था। उनकी बाइपास सर्जरी हो चुकी थी। 5 नवम्बर, 2009 को हैदराबाद में भारत और ऑस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच हुआ। प्रभाष जी उसे दूरदर्शन पर देख रहे थे। सचिन तेंदुलकर ने 175 रन बनाये, इससे वे बहुत प्रफुल्लित हुए; पर अचानक उसके आउट होने और तीन रन से भारत की हार का झटका उनका दिल नहीं सह सका और अस्पताल पहुंचने से पूर्व ही उनका प्राणांत हो गया। इस प्रकार एक प्रखर पत्रकार की वाणी और लेखनी सदा के लिए शांत हो गयी।।