1. जन्मना ब्राह्मणों को कभी भी, किसी से भी, कोई भी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जब से जन्मना ब्राह्मणों ने अपेक्षा करना शुरू किया है तभी से समस्या है।
जन्मना ब्राह्मण को तो निस्पृह भाव से स्वयं को समाज के दंद-फंद से दूर रखकर अपनी आजीविका की व्यवस्था और रामभजन करना चाहिए।
2. आजीविका चयन में जन्मना ब्राह्मणों को प्रयास यही करना चाहिए कि आजीविका का साधन ऐसा हो जिसमें हिंसा और पराश्रयता कम से कम और धर्म, संपूर्ण समाज और राष्ट्र सबकी सेवा अधिक से अधिक हो सके।
3. संग्रह अत्यावश्यक है अतः जन्मना ब्राह्मणों को ज्ञान और ग्रन्थों के संग्रह को प्रथम वरीयता देना चाहिए और वस्तुओं तथा धन का भी उतना संग्रह अवश्य करना चाहिए जिससे परिवार का काम चलता रहे और समाज में भी औसत सम्मानजनक स्थिति बनी रहे। ज्ञान और साहित्य संग्रह में ब्राह्मणों को जितना अधिक हो सके लोभ करना चाहिए और धन के विषय में अधिकतम सन्तोषी होना चाहिये।
4. जन्मना ब्राह्मणों को स्वाभिमानी, मितव्ययी, विनम्र और दिखावे से दूर रहना चाहिए। यथासंभव स्वावलंबी और सादगी पूर्ण जीवन जीना चाहिए। सप्रयास ऐसे व्यसनों से बचना चाहिए जो समाज पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।
5. ब्राह्मण को अभिवादन शील होना चाहिए। प्रयास पूर्वक पहले अभिवादन स्वयं ब्राह्मण करें और यदि अन्य व्यक्ति द्वारा जन्मना ब्राह्मण को अभिवादन किया जाए तो समुचित सम्मान प्रकट करते हुए विनम्रता पूर्वक अपने इष्टदेव को बारम्बार सपष्ट उच्चारण पूर्वक स्मरण करें।
यदि कोई किसी भी रूप में सम्मान दर्शाए भी तो उसके सम्मान के प्रतिउत्तर में हाथ जोड़कर शिर झुकाकर अपने इष्टदेव के नाम की जोर जोर से जयकार करनी चाहिए। किंतु कोई आपका सम्मान करें ऐसी अपेक्षा करने पर ब्राह्मणों के संचित पुण्य नष्ट होने लगते हैं।
6. जन्मना ब्राह्मणों को मनोरंजन के नाम पर की जाने वाली कोई भी फ़ूहड़ हरकतों से सदा दूर रहना आवश्यक है। हो सकता है कि तत्काल में किसी को बुरा लगे, इस स्थिति में भी क्षमा याचना पूर्वक उन कार्यक्रमों से हट जाना चाहिए जहां धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर फ़ूहड़ नाचकूद या हास्य होने की संभावना हो।
7. ब्राह्मण के वंश में जन्म का अर्थ यही है कि उस परब्रह्म परमात्मा ने आपको धर्म और राष्ट्र की सेवा के लिए भेजा है। सेवा का कार्य त्याग, समर्पण और सहनशीलता की अपेक्षा रखता है।
8. जन्मना ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक जड़-चेतन में ईश्वर को प्रकट मानकर सबके प्रति आदर रखें, आदर प्रकट करें।
9. जन्मना ब्राह्मणों को चाहिए कि धार्मिक और सामाजिक विषयों में सेवक धर्म का पालन करें और केवल योग्य व्यक्तियों द्वारा विधिपूर्वक पूछे गए प्रश्नों के युक्तियुक्त उत्तर शास्त्र प्रमाण सहित प्रस्तुत करें। जिन विषयों पर अधिकार नहीं है वहां अपनी अनभिज्ञता प्रदर्शित कर अपने असमर्थ होने हेतु क्षमा मांग लें। यदि ब्राह्मण प्रशासक या नियंता बनने का प्रयास करेंगे तो विवादित बनेंगे ही।
10. ब्राह्मण के लिए उचित है कि यदि धर्म या राष्ट्र की हानि की संभावना प्रतीत हो तो उचित क्रोध अवश्य प्रदर्शित करें। किंतु किसी के प्रति मन में वैर भाव न रखें।
11. ब्राह्मण को पिशुनवृत्ति (चुगलखोरी) किसी भी स्थिति में नहीं करनी चाहिए और कभी भी किसी के रहस्यों अथवा कमजोरियों को ज्ञात होने पर कहीं भी प्रकट नहीं करना चाहिए।
12. ब्राह्मण को सत्यवक्ता और स्पष्टवक्ता होना ही चाहिये किंतु सहसा नहीं बोलना चाहिए। उचित अवसर पर बोलने से पूर्व अच्छी तरह सोचविचार करके सीमित, उचित और अनुकूल शब्दों में अपनी बात रखनी चाहिए।
13. शास्त्रों, सन्तों, गुरुजनों, तीर्थों, स्त्रियों, वृद्धजन और गौमाता की निंदा कदापि नहीं करनी चाहिए, प्राणभय उपस्थित होने पर भी इनके प्रति अनुचित शब्दों की चिंतन तक नहीं करना चाहिए फिर कहने की तो बात ही क्या है।
गुरुदेव कहते हैं ब्राह्मण होना प्रभु की बहुत बड़ी कृपा है, लेकिन इसे पाकर निभाना सरल काम नहीं।
मुझे स्वयं ये शिक्षाये अपने जीवन में देर से मिल पाई या संभवतः समझने में देर हुई, और अभी तक भी इन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर पाया। तथापि जितना कर पाया उतने में सुखी हूं। आगे प्रयास जारी हैं।