जानिए धर्म क्या है -के सी शर्मा



धर्म क्या है? श्रीमद भगवद गीता में बड़ा ही सुंदर प्रश्न अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से पूछते हैं कि धर्म क्या है?

अर्जुन पूछते है – धर्म क्या है? 
धर्म की व्याख्या क्या है? 
इस बात का निर्णय कौन करता है? 
हे मधुसूदन! वो कौन है जो धर्म का विधान बनाते हैं?

कृष्ण बोले- हे अर्जुन! हर प्राणी अपने धर्म का विधान स्वयं बनता है।

अर्जुन पूछते हैं- मैं समझा नहीं केशव!

कृष्ण कहते हैं- देखो पार्थ! धर्म का जो विधान किसी दूसरे ने बनाया हो वो तुम्हारा धर्म नहीं हो सकता। तुम्हारा धर्म वही है जिसे तुमने स्वयं बनाया हो। जिसे तुम्हारी आत्मा ने स्वीकार किया हो। धर्म व्यक्तिगत चीज है। जिसका फैसला व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है।

अर्जुन कहता है- मैं, मैं अब भी नहीं समझा केशव!

भगवान कृष्ण कहते हैं- देखो पार्थ! मैं एक उदाहरण देकर समझाता हूँ। किसी के गाँव पर डाकू हमला करके गाँव की लड़कियों का अपहरण कर रहे हैं। उसी समय किसी का पिता मृत्यु सैया पर पड़ा जीवन की अंतिम सांस ले रहा है और पुत्र से बार बार पानी का एक एक घूंट मांग रहा है। उस समय उस व्यक्ति का क्या धर्म है? वो मरते हुए पिता के कंठ में अंतिम समय गंगा के जल की बून्द बून्द टपकाता हुआ अपने पुत्र धर्म का पालन करे या उसके गाँव की लड़कियों पर जो संकट आ गया है उनकी रक्षा के लिए तलवार उठाकर उन डाकुओं का मुकाबला करे और आवश्यक हो तो जान भी देकर अपने गाँव की इज्जत बचाये। इसका निर्णय कोई दूसरा कैसे कर सकता है। इसको धर्म का दोराहा या धर्म संकट भी कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में वो व्यक्ति क्या करे? उसका फैसला कोई बाहर वाला नहीं कर सकता। ये निर्णय उसी को लेना होता है कि उस समय उसका प्रथम धर्म क्या है? उस समय उसकी आत्मा जो आवाज दे वही उसका धर्म है। इसलिए हे अर्जुन! हर प्राणी का धर्म व्यक्तिगत होता है।

जो इस आत्मा को मरने वाला समझता है या जो इसे मारने वाला समझता है वो दोनों ही अज्ञानी है। क्योंकि आत्मा न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जा सकता है। इसलिए किसी के मरने या मारने का शोक किये बिना तू अपना कर्तव्य कर। तेरा धर्म युद्ध करना है। तू अपना धर्म समझकर युद्ध कर।