जाने भगवान दत्तात्रेय उपनिषद् पर विशेष-के सी शर्मा




प्रथमः खण्डः

सत्यक्षेत्र में ब्रह्मा, बड़े तेजोमय नारायण से, ‘हे भगवन् ! तारक क्या है, इसके सम्बन्ध में आप मुझे कहिए’—ऐसा कहने लगे। तब नारायण ने कहा- ‘सत्य-आनन्द-चिदात्मक ऐसा मेरा जो सात्त्विक धाम है, उसकी उपासना करो’ उन्होंने आगे कहा- ‘जो लोग मेरे प्रति ‘मैं दत्त हूँ’-ऐसा ठीक तरह से कहेंगे, वे संसारी नहीं होते’ । जब नारायण ने ब्रह्मा से इस तरह कहा, तब ब्रह्मा विश्वरूपधारी विष्णु भगवान् नारायण का ध्यान करके इस तरह कहने लगे कि ‘सत् सत्’ ॥1॥

ब्रह्मा के इस दृढ़ानुभव से सन्तुष्ट भगवान् दत्तात्रेय तब कहने लगे- ‘दम्’ यह हंस (प्रत्यगात्मा) है, ‘दाम्’ यह उसका विश्रान्तिस्थान परब्रह्म दीर्घ है। उसका बीज ब्रह्म ही है। वह बीजस्थ ‘दाम्’ एकाक्षर है । वही यह तारक है। उसी की उपासना करनी चाहिए, वही जानना चाहिए । इसका गायत्री छन्द है, सदाशिव ऋषि है, दत्तात्रेय देवता है । जैसे वटबीज में वट रहता है, वैसे ही दत्तबीज में जगत् रहता है। इस प्रकार एकाक्षर मंत्र की व्याख्या की गई॥2॥

अब षडक्षर की व्याख्या करूँगा। इसमें ॐ प्रथम है, श्री द्वितीय है, हीं तृतीय है, क्लीं चौथा अक्षर है, ग्लौं पाँचवाँ अक्षर है और द्रां छठा अक्षर है, इस प्रकार यह षडक्षर मंत्र है । इसकी उपासना से योगानुभव होता है। इसका गायत्री छन्द है । सदाशिव ऋषि है और दत्तात्रेय देवता है। इस तरह ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं द्रां-ऐसा छ: अक्षरों वाला मंत्र बनता है॥3॥

प्रथम ‘द्रं’ या ‘द्रां’ कहकर बाद में ‘दत्तात्रेयाय नम:’ ऐसा बोलने से अष्टाक्षर मंत्र बनता है । इसमें ‘दत्तात्रेयाय’ पद सत्यानन्दचिदात्मक है और ‘नम’ पद पूर्णानन्दस्वरूप है । इस मंत्र का छन्द गायत्री है, और सदाशिव ऋषि हैं, एवं दत्तात्रेय देवता है। ‘दत्तात्रेयाय’- यही कीलक है, और वही बीज है, ‘नम:’ शक्ति है॥4॥

अब दत्तात्रेय का द्वादशाक्षरमंत्र कहा जाता है । इसमें प्रथमाक्षर ‘ओम्’ है, दूसरा ‘आम्’ है, ‘ही’ तीसरा है, ‘क्रोम्’ चौथा है। बाद में ‘एहि’ बोलना चाहिए और बाद में ‘दत्तात्रेय स्वाहा’ ऐसा बोलने से बारह अक्षरों का यह मंत्रराज बनता है । (पूरा मंत्र- ‘ॐ आं ही क्रों एहि दत्तात्रेय स्वाहा’-ऐसा होता है) इस मंत्र का छन्द जगती है, सदाशिव ऋषि है, दत्तात्रेय देवता है, ओम् बीज है और स्वाहा शक्ति है। सम्बुद्धि कीलक है। ‘द्रम्’ कहकर हृदय में, ‘ह्रीं क्लीं’ कहकर मस्तक पर, ‘एहि’ कहकर शिखा पर, ‘दत्त’ कहकर कवच पर, ‘आत्रेय’ कहकर आँख पर और ‘स्वाहा’ कहकर अस्त्र पर न्यास करने से साधक तन्मय हो जाता है और जो यह जानता है, वह भी तन्मय होता है॥5॥

यह षोडशाक्षर मंत्र अनधिकारी को नहीं देना चाहिए-भले प्राण देना पड़े, भले उसे मान भी देना पड़े, चाहे उसे आँख भी दो, या चाहे तो उसे कान भी दो । क्योंकि अनधिकारियों को यह मंत्र दिए जाने से तो सोलह मस्तक कट जाते हैं । इसलिए अनधिकारियों को यह षोडशाक्षर मंत्र नहीं देना चाहिए । परन्तु जो शिष्य अतिसेवापरायण हो, भक्त हो और गुणवान हो उसी को देना चाहिए । इसमें ओं प्रथमाक्षर है, ऐं द्वितीय है, क्रों तृतीय है, क्लीं चतुर्थ है, क्लूं पाँचवाँ है, हां छठा है, हीं सातवाँ है, हूं आठवाँ है, सौ: नवाँ है, दत्तात्रेयाय—ये पाँच मिलकर चौदह होते हैं और ‘स्वाहा’—ये दो मिलकर सोलह होते हैं । (पूरा मंत्र- ‘ॐ ऐं क्रों क्लीं क्लूं हां ह्रीं हूं सौ: दत्तात्रेयाय स्वाहा’ होगा।) इस मंत्र का गायत्री छन्द है, सदाशिव ऋषि है, दत्तात्रेय देवता है, ॐ बीज है, स्वाहा शक्ति है । चतुर्थ्यन्त ‘दत्तात्रेयाय’ शब्द कीलक है। इसका ओम् कहकर हृदय में, क्लां-क्यूँ-क्लीं कहकर शिखा में, सौ: कहकर कवच में, चतुर्थ्यन्त ‘दत्तात्रेयाय’ पद से आँख पर और स्वाहा कहकर अस्त्र पर हमेशा अध्ययन करते हुए जो न्यास करता है, वह सच्चिदानन्द की ओर मुखवाला मोक्ष प्राप्त करता है । और सौः के बाद ‘श्रीवैष्णवे’ यह भी बोला जाए तो वह बोलने वाला विष्णुरूपी हो जाता है॥6॥

अब दत्तात्रेय के अनुष्टुप् मंत्र की व्याख्या करता हूँ। ये पद सर्वत्र संबुद्धि कहे जाते हैं- “हे दत्तात्रेय ! हे हरे ! हे कृष्ण ! हे उन्मत्त ! हे आनन्ददायक ! हे दिगम्बर ! हे मुनि ! हे बालपिशाच ! हे ज्ञानसागर !” ऐसी यह उपनिषत् है। यह अनुष्टुप् छन्द है, सदाशिव ऋषि है, दत्तात्रेय देवता है। ‘दत्तात्रेयाय’ बोलकर हृदय में, ‘हरे कृष्ण’ कहकर मस्तक पर, ‘उन्मत्तानन्द’ कहकर शिखा पर, ‘दायकमुने’ कहकर कवच में, ‘दिगम्बर’ कहकर आँख पर, ‘पिशाचज्ञानसागर’ कहकर अस्त्र में (न्यास करना चाहिए !) यह मंत्र मैंने सीखा । इससे ब्रह्मातिरिक्त जन्म के जो दोष हैं, वे नष्ट हो जाते हैं । जो यह जानता है वह साधक सर्व का उपकारक और मोक्षगामी बनता है। ऐसा उपनिषत् कहती है॥7॥

भगवान दत्तात्रेय जी की जय