स्वामी विवेकानन्द के विश्वप्रसिद्ध भाषण लिखने का श्रेय जोशिया जॉन गुडविन को है। स्वामी जी उसे प्रेम से ‘मेरा निष्ठावान गुडविन’ (My faithful Goodwin) कहते थे। उसका जन्म 20 सितम्बर, 1870 को इंग्लैंड के बैथेस्टोन में हुआ था। उसके पिता श्री जोशिया गुडविन भी एक आशुलिपिक (stenographer) एवं सम्पादक थे। गुडविन ने भी कुछ समय पत्रकारिता की; पर सफलता न मिलने पर वह ऑस्ट्रेलिया होते हुए अमरीका आ गया।
स्वामी जी के 1895 में न्यूयार्क प्रवास के दौरान एक ऐसे आशुलिपिक की आवश्यकता थी, जो उनके भाषण ठीक और तेजी से लिख सके। इसमें कई लोग लगाये गये; पर कसौटी पर केवल गुडविन ही खरा उतरा, जो 99 प्रतिशत शुद्धता के साथ 200 शब्द प्रति मिनट लिखता था। वह इससे पहले कई वरिष्ठ और प्रसिद्ध लोगों के साथ काम कर चुका था। अतः उसे उचित पारिश्रमिक पर नियुक्त कर लिया गया; पर स्वामी जी के भाषण सुनते-सुनते गुडविन का मन बदल गया। उसने पारिश्रमिक लेने से स्पष्ट मना कर दिया और अपनी सेवाएँ निःशुल्क देेने लगा। उसने अपने एक मित्र को लिखा, ‘‘मुझे अब पैसा मिले या नहीं, पर मैं उनके प्रेमजाल में फँस चुका हूँ। मैं पूरी दुनिया घूमा हूँ। अनेक महान लोगों से मिला हूँ; पर स्वामी विवेकानन्द जैसा महापुरुष मुझे कहीं नहीं मिला।’’
एक निष्ठावान शिष्य की तरह गुडविन स्वामी जी की निजी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते थे। वे उनके भाषणों को आशुलिपि में लिखकर शेष समय में उन्हें टाइप करते थे। इसके बाद उन्हें देश-विदेश के समाचार पत्रों में भी भेजते थे। स्वामी जी प्रायः हर दिन दो-तीन भाषण देते थे। अतः गुडविन को अन्य किसी काम के लिए समय ही नहीं मिलता था। 1895-96 में स्वामी जी ने कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग पर जो भाषण दिये, उसके आधार पर उनके सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ बने हैं। स्वामी जी ने स्वयं ही कहा था कि ये ग्रन्थ उनके जाने के बाद उनके कार्यों का आधार बनेंगे। इन दिनों गुडविन छाया के समान उनके साथ रहते थे।
स्वामी जी भाषण देते समय किसी ओर लोक में खो जाते थे। कई बार तो उन्हें स्वयं ही याद नहीं आता था कि उन्होंने व्याख्यान या श्रोताओं के साथ हुए प्रश्नोत्तर में क्या कहा था ? ऐसे में गुडविन उन्हें उनके भाषणों का सार दिखाते थे। स्वामी जी ने उसकी प्रशंसा करते हुए एक बार कहा कि गुडविन ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। उसके बिना मैं कठिनाई में फँस जाता।
अपै्रल 1896 में स्वामी जी के लंदन प्रवास के समय भी गुडविन उनके साथ थे। जनवरी 1897 में वे स्वामी जी के साथ कोलकाता आ गये। गुडविन वहाँ सब मठवासियों की तरह धरती पर सोते तथा दाल-भात खाते थे। वे दार्जिलिंग, अल्मोड़ा, जम्मू तथा लाहौर भी गये। लाहौर में उन्होंने स्वामी जी का अंतिम भाषण लिखा। फिर वे मद्रास आकर रामकृष्ण मिशन के काम में लग गये। उन्होंने ‘ब्रह्मवादिन’ नामक पत्रिका के प्रकाशन में भी सहयोग दिया।
पर मद्रास की गरम जलवायु से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः वे ऊटी आ गये। वहीं दो जून, 1898 को केवल 28 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। स्वामी जी उस समय अल्मोड़ा में थे। समाचार मिलने पर उनके मुँह से निकला, ‘‘मेरा दाहिना हाथ चला गया।’’ ऊटी में ही स्वामी विवेकानन्द के इस प्रिय शिष्य का स्मारक बनाया गया है।
गुडविन इस लिखित सामग्री को ‘आत्मन’ कहते थे। शार्टहैंड में लिखे ऐसे हजारों पृष्ठ उन्होंने एक छोटे संदूक में रखकर अपनी मां के पास इंग्लैंड भेज दिये थे, जिनका अब कुछ भी पता नहीं है। इनमें स्वामी जी के भाषणों के साथ ही उनके कई भाषाओं में लिखे पत्र भी हैं।