उत्कलमणि गोपबन्धु दास का जन्म ग्राम सुवान्दो (जिला पुरी) में नौ अक्तूबर, 1877 को हुआ था। इनके परदादा को उत्कल के गंग शासकों ने जयपुर से बुलाकर अपने यहाँ बसाया था। इनके पिता श्री दैत्यारि तथा माता श्रीमती स्वर्णमयी देवी थीं। जन्म के कुछ दिन बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। अतः इनका पालन ताई जी ने किया। इनके परिवार में परम्परा से पुरोहिताई होती थी। अतः बचपन से ही इन्हें पूजा-पाठ के संस्कार मिले।
इनके पिताजी यों तो एक कर्मकांडी ब्राह्मण थे; पर उनकी इच्छा थी कि गोपबन्धु अंग्रेजी पढ़ें। अतः उन्होंने अपने गाँव में ही अंग्रेजी पढ़ाने वाले एक विद्यालय की स्थापना कराई। 12 वर्ष की अवस्था में गोपबन्धु का विवाह हो गया। पढ़ाई में उनकी रुचि थी ही, अतः उन्होंने कटक से बी.ए और फिर कोलकाता से एम.ए तथा काूनन की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं।
कोलकाता में रहते हुए भी उनका मन अपने प्रदेश की सेवा के लिए छटपटाता रहता था। उन दिनों बंगाल में उड़ीसा के लोग रसोइये और कुली का काम करते थे, अतः उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता था। यह देखकर गोपबन्धु दास रात्रिकालीन कक्षाएँ लगाकर उन्हें पढ़ाने लगे। एक बार जब उड़ीसा में बाढ़ आयी, तो उन्होंने कोलकाता से धन संग्रह कर वहाँ भेजा।
उनके तीन पुत्र थे; पर तीनों छोटी आयु में ही चल बसे। जब उनका तीसरा पुत्र मृत्युशय्या पर था, तो वे उसे छोड़कर बाढ़-पीड़ितों की सेवा करने चले गये। पत्नी ने जब रोका, तो वे बोले - जो प्रभु की इच्छा है, वही होगा। यहाँ तो एक पुत्र है, मैं तो हजारों पुत्रों की रक्षा के लिए जा रहा हूँ। कुछ समय बाद उनकी पत्नी का भी देहान्त हो गया। उस समय गोपबन्धु की अवस्था केवल 28 वर्ष की थी। लोगों ने उनसे दूसरा विवाह करने का बहुत आग्रह किया; पर उन्होंने स्वयं को समाज-सेवा में झोंक दिया।
गोपबन्धु दास कटक में वकालत करते थे; पर उनका मन समाज सेवा में ही लगा रहता था। उड़ीसा में प्रायः हर साल बाढ़ आती थी। ऐसे में सेवा कार्य करने वाली हर संस्था तथा व्यक्ति के लिए उनके द्वार खुले रहते थे। उन्हें कई बार अपनी जाति के कट्टर लोगों का विरोध सहना पड़ता था; पर उन्होंने इसकी चिन्ता नहीं की। वे राजनीतिक रूप से भी बहुत जागरूक थे। देश को गुलाम देखकर उनका मन पीड़ा से भर उठता था। अतः वे कांग्रेस में शामिल होकर आजादी के लिए भी प्रयत्न करने लगे।
गोपबन्धु दास ने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए ‘सत्यवादी विद्यालय’ की स्थापना की। इसके बाद वे पत्रकारिता में भी सक्रिय हुए। उन्होंने ‘उत्कल दीपिका’ ‘समाज’ तथा ‘आशा’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित किये। इनके सुचारु संचालन के लिए लिए उन्होंने मदनमोहन प्रेस खरीदा।
एक बार ग्रामीणों पर पुलिस अत्याचार का समाचार छापने पर इन्हें जेल भेज दिया गया। मुकदमे की सुनवाई के समय न्यायालय में हजारों लोग आते थे। अतः न्यायाधीश को खुले में सुनवाई करनी पड़ी। अन्ततः गोपबन्धु दास निर्दोष सिद्ध हुए। इसके बाद भी कई बार प्रकाशित समाचारों को लेकर उनका शासन से टकराव हुआ; पर उन्होंने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया।