भारत माँ को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए देश का कोई कोना ऐसा नहीं था, जहाँ छोटे से लेकर बड़े तक, निर्धन से लेकर धनवान तक, व्यापारी से लेकर कर्मचारी और कवि, कलाकार, साहित्यकार तक सक्रिय न हुए हों। यह बात और है किसी को इस संग्राम में सफलता मिली, तो किसी को निर्वासन और वीरगति।
चहलारी, बहराइच (उत्तर प्रदेश) के 18 वर्षीय जमींदार बलभद्र सिंह ऐसे ही वीर थे। उनके पास 33 गाँवों की जमींदारी थी। उनकी गाथाएँ आज भी लोकगीतों में जीवित हैं। 1857 में जब भारतीय वीरों ने मेरठ में युद्ध प्रारम्भ किया, तो अंग्रेजों ने सब ओर भारी दमन किया। अवध के नवाब वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी के बाद उनकी बेगम हजरत महल ने लखनऊ छोड़कर राजा हरदत्त सिंह (बौड़ी) के गढ़ को केन्द्र बनाया। उन्होंने वहाँ अपने विश्वासपात्र राजाओं, जमींदारों तथा स्वाधीनता सेनानियांे की बैठक बुलाकर सबको इस महासंग्राम में कूदने का आह्नान किया।
अपने छोटे भाई छत्रपाल सिंह के विवाह के कारण बलभद्र सिंह इस बैठक में आ नहीं पाये। बेगम ने उन्हें बुलाने के लिए एक विशेष सन्देशवाहक भेजा। इस पर बलभद्र सिंह बारात को बीच में ही छोड़कर बौड़ी आ गये। बेगम ने उन्हें सारी योजना बतायी, जिसके अनुसार सब राजा अपनी सेना लेकर महादेवा (बाराबंकी) में एकत्र होने थे। बलभद्र सिंह ने इससे पूरी सहमति व्यक्त की और अपने गाँव लौटकर सेनाओं को एकत्र कर लिया।
जब बलभद्र सिंह सेना के साथ प्रस्थान करने लगे, तो वे अपनी गर्भवती पत्नी के पास गये। वीर पत्नी ने उनके माथे पर रोली-अक्षत का टीका लगाया और अपने हाथ से कमर में तलवार बाँधी। इसी प्रकार राजमाता ने भी बेटे को आशीर्वाद देकर अन्तिम साँस तक अपने वंश और देश की मर्यादा की रक्षा करने को कहा। बलभद्र सिंह पूरे उत्साह से महादेवा जा पहुँचे।
महादेवा में बलभद्र सिंह के साथ ही अवध क्षेत्र के सभी देशभक्त राजा एवं जमींदार अपनी सेना के साथ आ चुके थे। वहाँ राम चबूतरे पर एक सम्मेलन हुआ, जिसमें सबको अलग-अलग मोर्चे सौंपे गये। बलभद्र सिंह को नवाबगंज के मोर्चे का नायक बनाकर बेगम ने शाही चिन्हों के साथ ‘राजा’ की उपाधि और 100 गाँवों की जागीर प्रदान की।
बलभद्र सिंह ने 16,000 सैनिकों के साथ मई 1958 के अन्त में ओबरी (नवाबगंज) में मोर्चा लगाया। वे यहाँ से आगे बढ़ते हुए लखनऊ को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे। उधर अंग्रेजों को भी सब समाचार मिल रहे थे। अतः ब्रिगेडियर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी गयी, जिसके पास तोपखाने से लेकर अन्य सभी आधुनिक शस्त्र थे।
13 जून को दोनों सेनाओं में भयानक युद्ध हुआ। बलभद्र सिंह ने अपनी सेना को चार भागों में बाँट कर युद्ध किया। एक बार तो अंग्रेजों के पाँव उखड़ गये; पर तभी दो नयी अंग्रेज टुकड़ियाँ आ गयीं, जिससे पासा पलट गया। कई जमींदार और राजा डर कर भाग खड़े हुए; पर बलभद्र सिंह चहलारी वहीं डटे रहे। अंग्रेजों ने तोपों से गोलों की झड़ी लगा दी, जिससे अपने हजारों साथियों के साथ राजा बलभद्र सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए।