12 जुन
महायोगी गोपीनाथ कविराज की पुण्यतिथि पर विशेष-के सी शर्मा
भारत योगियों की भूमि है। यहाँ अनेक योगी ऐसे हैं, जो हजारों सालों से हिमालय की कन्दराओं में तपस्यारत हैं । ऐसे योगियों की साधना एवं चमत्कार देख सुन कर आश्चर्य होता है। ऐसे योगियों से मिलकर उनकी साधना की जानकारी लेखन द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाने का काम जिन महान आत्मा ने किया, वे थे महामहोपाध्याय डा. गोपीनाथ कविराज।
श्री गोपीनाथ कविराज का जन्म 7 सितम्बर, 1887 को अपने ननिहाल धामराई (अब बांग्लादेश) में हुआ था। दुर्भाग्यवश इनके जन्म से पाँच महीने पूर्व ही इनके पिता का देहान्त हो गया। अतः इनका पालन माता सुखदा सुन्दरी ने अपने मायके और ससुराल काँठालिया में रहते हुए किया। गोपीनाथ जी बचपन से ही मेधावी छात्र थे। शिक्षा की लगन के कारण ये ढाका, जयपुर और काशी आदि अनेक स्थानों पर भटकते रहे।
छात्र जीवन में इन्होंने अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त विश्व के अनेक देशों के इतिहास तथा भाषाओं का अध्ययन किया। 13 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह भी हो गया। इनके एक पुत्र एवं एक पुत्री थी। जयपुर से बी.ए. करने के बाद बनारस संस्कृत कालेज के प्राचार्य डा. वेनिस के सुझाव पर इन्होंने एम.ए. में न्यायशास्त्र, पुरालेखशास्त्र, मुद्राविज्ञान तथा पुरालिपि का गहन अध्ययन किया। प्रख्यात राजनेता आचार्य नरेन्द्र देव इनके सहपाठी थे।
गोपीनाथ जी ने एम.ए. प्रथम श्रेणी और पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम रहकर उत्तीर्ण किया। उन्हें लाहौर और राजस्थान विश्वविद्यालय से अध्यापन के प्रस्ताव मिले; पर डा. वेनिस के परामर्श पर उन्होंने तीन वर्ष तक और अध्ययन किया। अब उनकी नियुक्ति इसी विद्यालय में संस्कृत विभाग में हो गयी। यहाँ रहकर उन्होंने अनेक प्राचीन हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थों को प्रकाशित कर अमूल्य ज्ञाननिधि से जन सामान्य का परिचय कराया।
1924 में गोपीनाथ जी प्राचार्य बने। बचपन से ही उनका मन योग साधना में बहुत लगता था। अतः 1937 में उन्होंने समय से पूर्व अवकाश ले लिया। अब उनके पास पूरा समय स्वाध्याय एवं साधना के लिए था। काशी में ही रहने का निश्चय कर उन्होंने वहीं एक मकान भी बनवा लिया। काशी में उनका सम्पर्क अनेक सिद्ध योगियों तथा संन्यासियों से हुआ। इनमें से अनेक देहधारी थे, तो अनेक विदेह रूप में विचरण करने वाले भी थे। इनसे जो वार्तालाप होता था, उसे वे लिखते रहते थे। इस प्रकार इनके पास अध्यात्म सम्बन्धी अनुभवों का विशाल भण्डार हो गया।
अध्यात्म क्षेत्र में परमहंस विशुद्धानन्द जी इनके गुरु थे; पर स्वामी शिवराम किंकर योगत्रयानन्द, माँ आनन्दमयी आदि विद्वानों से इनका निरन्तर सम्पर्क रहता था। 1961 में ये कैन्सर से पीड़ित हुए, तो माँ आनन्दमयी ने मुम्बई ले जाकर इनका समुचित इलाज कराया। स्वस्थ होकर वे फिर काशी चले आये और पूर्ववतः स्वाध्याय एवं साधना में लग गये। इसी प्रकार जनसेवा करते हुए 12 जून, 1976 को उन्होंने अपनी देह लीला का विसर्जन किया।