जीवन में हर क्षेत्र की एक सीमा होती है और सीमा का अतिक्रमण जीवन नाश का कारण बन जाता है। अति से अमृत भी विष बन जाता है और मात्रा में सेवन करने पर विष भी अमृत बन जाता है।
इसलिए हमारे मनीषियों ने सूत्र दिया कि - अति सर्वत्र वर्जयेत्..।
भोजन स्वास्थ्य के लिए अतिआवश्यक है मगर वही भोजन यदि मात्रा से अधिक लिया जाये तो वही हमारी अस्वस्थता का कारण भी बन जाता है।
दूध को अमृत माना गया है मगर अति सेवन से वही अमृत तुल्य दूध शरीर के लिए विष भी बन जाता है।
सम्यकता जीवन का श्रृंगार है इसलिए जीवन के सौंदर्य वर्धन के लिए सम्यकता अनिवार्य हो जाती है। क्रोध भी यदि सीमा में किया जाए तो वो भी हितकर बन जाता है और शांति भी यदि सीमा से अधिक हो तो वो भी अहितकर बन जाती है।
और तो और शास्त्रों ने तो यहाँ तक कहा है कि जीवन में अति मूढ़ता तो होनी ही नहीं चाहिए मगर अति ज्ञान और चातुर्य भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि जहाँ ज्ञान की अति होगी वहाँ वो रावण के समान अहंकार रुपी विष को अवश्य जन्म देगा।
महाभारत के घोर विनाश के दो प्रमुख कारण थे और वो ये कि एक देवी द्रौपदी का आवश्यकता से अधिक बोलना और एक भीष्मपितामह का आवश्यकता से अधिक मौन धारण कर लेना। एक ने अनावश्यक शब्द बाण चलाकर तो एक ने अनावश्यक मौन रहकर अपनी-अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया था।
अति का भला न बरसना अति की भली न धूप।
अति का भला न बोलना अति की भली न चूप ॥
जीवन में जब - जब सीमा का अतिक्रमण होगा तब - तब एक नया तनाव और एक नईं अशांति का भी जन्म होगा।
सम्यक ज्ञान, सम्यक वाणी, सम्यक मौन, सम्यक क्रोध, सम्यक शांति, सम्यक हास्य और सम्यक दृष्टि। यही जीवन के संपूर्ण आनंद का सूत्र है।
अति से बचना ही जीवन में बुरी गति से बचना भी है।