चलो गाँव की ओर, तुम्हारा बुलावा आया है!!परदेशियों के लिये गाँव रूपी तीर्थ ने सन्देश भेजा है
मैं वहीं गाँव हूँ जिसपर ये आरोप है कि यहाँ रहोगे तो भूखे मर जाओगे।मैं वहीं गाँव हूँ जिस पर आरोप है कि यहाँ अशिक्षा रहती है!!मैं वहीं गाँव हूँ जिस पर असभ्यता और जाहिल गवाँर का भी आरोप है!!
हाँ मैं वहीं गाँव हूँ जिस पर आरोप लगाकर मेरे ही बच्चे मुझे छोड़कर दूर बड़े बड़े शहरों में चले गए!!जब मेरे बच्चे मुझे छोड़कर जाते हैं मैं रात भर सिसक सिसक कर रोता हूँ!! फिर भी मै मरा नही।मन में एक आस लिए आज भी अपनो को निर्निमेष पलकों से बांट जोहता हूँ!! शायद मेरे बच्चे आ जायँ??देखने की ललक में सोता भी नहीं हूँ??लेकिन हाय!जो जहाँ गया वहीं का हो गया??
मैं पूछना चाहता हूँ अपने उन सभी बच्चों से क्या मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेदार तुम नहीं हो?
अरे मैंने तो तुम्हे कमाने के लिए शहर भेजा था और तुम मुझे छोड़ शहर के ही हो गए।मेरा हक कहाँ है?
क्या तुम्हारी कमाई से मुझे घर,मकान,बड़ा स्कूल, कालेज,इन्स्टीट्यूट,अस्पताल,आदि बनाने का अधिकार नहीं है?ये अधिकार मात्र शहर को ही क्यों ? जब सारी कमाई शहर में दे दे रहे हो तो मैं कहाँ जाऊँ?मुझे मेरा हक क्यों नहीं मिलता?
इस कोरोना संकट में सारे मजदूर गाँव भाग रहे हैं,गाड़ी नहीं तो सैकड़ों मील पैदल बीबी बच्चों के साथ चल दिये आखिर क्यों?जो लोग यह कहकर मुझे छोड़ शहर चले गए थे कि गाँव में रहेंगे तो भूख से मर जाएंगे,वो किस आस विस्वास पर पैदल ही गाँव लौटने लगे??मुझे तो लगता है निश्चित रूप से उन्हें ये विस्वास है कि गाँव पहुँच जाएंगे? तो जिन्दगी बच जाएगी?भर पेट भोजन मिल जाएगा?परिवार बच जाएगा?सच तो यही है कि गाँव कभी किसी को भूख से नहीं मारता?हाँ मेरे लाल,आ जाओ मैं तुम्हें भूख से नहीं मरने दूँगा?
आओ मुझे फिर से सजाओ,मेरी गोद में फिर से चौपाल,लगाओ,मेरे आंगन में चाक के पहिए घुमाओ,मेरे खेतों में अनाज उगाओ,खलिहानों में बैठकर आल्हा खाओ,खुद भी खाओ दुनिया को खिलाओ,महुआ ,पलास के पत्तों को बीनकर पत्तल बनाओ,गोपाल बनो,मेरे नदी तालतलैया,बाग,बगीचे गुलजार करो,सोनवा भीठ के स्वर्गीय भारत बाबा की पीस पीस कर प्यार भरी गालियाँ,स्वर्गीय मथुरा बाबा,और बगिया के काका के उटपटांग डायलाग, पंडित के अम्मा की अपनापन वाली खीज और बुड्ढी अम्मा की पिटाई,तिराहे की चाट, कूरेभार की जलेबी की मिठाई,नाउ बाबा की बगिया के बाबा की नल के पास बाल कटवाने ओर हजामत और नहरवा की लमकने की मोची की दुकान,गंगा ओर मोती,आसरे की बाजार की दुकान,केवतहिया, कटाटा के भड़भूजे की सोंधी महक,लईया, चना,कचरी,होरहा,बूट,खेसारी सब आज भी तुम्हे पुकार रहे है?
मुझे पता है वो तो आ जाएंगे जिन्हे मुझसे प्यार है लेकिन वो?वो क्यों आएंगे जो शहर की चकाचौंध में विलीन हो गए?
वही घर मकान बना लिए ,सारे पर्व, त्यौहार,संस्कार वहीं से करते हैं? मुझे बुलाना तो दूर पूछते तक नहीं?लगता अब मेरा उनपर कोई अधिकार ही नहीं बचा?अरे अधिक नहीं तो कम से कम होली दिवाली में ही आ जाते तो दर्द कम होता मेरा?
सारे संस्कारों पर तो मेरा अधिकार होता है न,कम से कम मुण्डन,जनेऊ,शादी,और अन्त्येष्टि तो मेरी गोद में कर लेते। मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि यह केवल मेरी इच्छा है?यह मेरी आवश्यकता भी है?मेरे गरीब बच्चे जो रोजी रोटी की तलाश में मुझसे दूर चले जाते हैं?उन्हें यहीं रोजगार मिल जाएगा,फिर कोई महामारी आने पर उन्हें सैकड़ों मील पैदल नहीं भागना पड़ेगा?मैं आत्मनिर्भर बनना चाहता हूँ?
मैं अपने बच्चों को शहरों की अपेक्षा उत्तम शिक्षित और संस्कारित कर सकता हूँ?मैं बहुतों को यहीं रोजी रोटी भी दे सकता हूँ?मैं तनाव भी कम करने का कारगर उपाय हूँ??मैं प्रकृति के गोद में जीने का प्रबन्ध कर सकता हूँ??मैं सब कुछ कर सकता हूँ?मेरे लाल!बस तू समय समय पर आया कर मेरे पास,अपने बीबी बच्चों को मेरी गोद में डाल कर निश्चिंत हो जा,दुनिया की कृत्रिमता को त्याग दें?
फ्रीज का नहीं घड़े का पानी पी,त्यौहारों समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डाल,अपने मोची के जूते,और दर्जी के सिरे कपड़े पर इतराने की आदत डाल,हलवाई की मिठाई,खेतों की हरी सब्जियाँ,फल फूल,गाय का दूध ,बैलों की खेती पर विस्वास रख कभी संकट में नहीं पड़ेगा।हमेशा खुशहाल जिन्दगी चाहता है तो मेरे लाल मेरी गोद में आकर कुछ दिन खेल लिया कर तू भी खुश और मैं भी
खुश!
जय जननी जय जन्मभूमि!