जानिए,रामचरित मानस और धर्म शब्द की व्याख्या-के सी शर्मा


आजकल साधारण तौर पर " धर्म " शब्द को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या अन्यों से जोड़कर देखा जाता हैं,

लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में " धर्म " शब्द की व्याख्या बहुत ही सम्पूर्ण एवं संतुलित रूप से की है, उन्होंने श्री रामचरितमानस में कई जगहों पर धर्म शब्द का प्रयोग किया है, नीचे लिखी चौपाईयों को थोड़ा ध्यान से पढ़ें-

परम धरम श्रुति विदित अहिंसा 
( अर्थात् अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है, जैसा कि शास्त्रों में भी अहिंसा को परम धर्म कहा गया है )

सेवा धरम सकल जग जाना 
( अर्थात् मनुष्य के भीतर प्राणी मात्र की सेवा और कल्याण की भावना ही असली धर्म है, जैसा कि महात्मा बुद्ध ने भी अपनी शिक्षाओं में मानव सेवा को ही श्रेष्ठ बताया है ) 

परहित सरिस धरम नहिं भाई 
( अर्थात् परोपकार और दया भाव ही धर्म की सर्वोच्च स्थिति है, जैसा कि संत कबीर जी ने भी अपनी वाणी में कहा है कि जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप )

धर्म न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुराण बखाना ।। ( अर्थात् सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है, इसलिए कहा गया है कि साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ) 

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितनी सरलता से धर्म शब्द का अर्थ बताया है, लेकिन फिर भी आज हम सब के लिए धर्म पर चलना कितना कठिन होता जा रहा है।

श्री रामचरित मानस के उत्तर काण्ड में कलियुग का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज लिखते हैं-

दोहा - कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रकट किए बहु पंथ ।।

भावार्थ
कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥

श्री रामचरित मानस के इस दोहे से स्पष्ट होता है कि कलियुग के पापों ने सब धर्मों ( अर्थात् मानव धर्मों; जो ऊपर चौपाईयों में लिखे हैं, ) को ग्रस लिया । अगर हम धर्म शब्द को मानव धर्मों से न जोड़ कर सिर्फ हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई पंथ से जोड़ कर ही देखें, तो इन सभी पंथों को कलियुग ने कहाँ ग्रसा है, बल्कि पंथों का प्रचार तो लोग कलियुग और जोर-शोर से कर रहे हैं; हर कोई अपने ही पंथ को श्रेष्ठ बताने में लगा हुआ है । वास्तव में अब कलियुग में लोग अपने-अपने पंथों का प्रचार तो खूब कर रहे हैं, लेकिन लोगों में मानव धर्मों की पालना खत्म होती जा रही है, इसी लिए ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में लिखा है -