हकीकत का आईंना
जानिए,महाभारत अपने काल का सबसे बड़ा महायुद्ध था-के सी शर्मा
महाभारत अपने काल का सबसे बड़ा महायुद्ध था। क्योंकि उस काल में शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
क्योकि इस युद्ध में भारत, अफगानिस्तान और ईरान तक के समस्त राजा कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े थे, किन्तु एक राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरत था, वो था दक्षिण के उडुपी का राज्य।
जब उडुपी के राजा युद्ध मे भाग लेने के लिए अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करने लगे।
उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे, उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा-हे माधव ! दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए लालायित दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा...... ?
इस पर श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ! आपने बिलकुल उचित सोचा है, आपके इस बात को छेड़ने पर मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है, अगर ऐसा है तो कृपया बताएं।
इसपर उडुपी नरेश ने कहा- हे वासुदेव ! ये सत्य है। भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझे नहीं है।
किन्तु ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।
इस पर श्रीकृष्ण ने हर्षित होते हुए कहा- महाराज ! आपका विचार अति उत्तम है, इस युद्ध में 50लाख योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसे कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे।
वैसे भी मुझे पता है कि सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के अतिरिक्त और किसी के लिए भी संभव नहीं है।
भीमसेन इस युद्ध से विरत हो नहीं सकते अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का भार संभालिये, इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार संभाला।
पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया, उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।
जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी, दोनों ओर के योद्धा ये देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उपस्थित रहते थे।
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर वे भोजन की व्यवस्था करवा सकें।
इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसप र भी इस प्रकार कि अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।
अंततः युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई। अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया- "हे महाराज ! समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि किस प्रकार हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे, किन्तु मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया, मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।"
इसपर उडुपी नरेश ने हँसते हुए कहा-" सम्राट ! आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ?"
इसपर युधिष्ठिर ने कहा-" श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ? अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।"
तब उडुपी नरेश ने कहा हे महाराज ! आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण का ही प्रताप है, ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।
तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा-" हे महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूँगफली खाते थे, मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है।"
वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक 1000गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे, अर्थात अगर वे 50 मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन 50000 योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे, उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था, यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।
श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए, ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है, कर्नाटक के उडुपी जिले में स्थित कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है, कर्नाटक के इस मठ की स्थापना उडुपी के सम्राट द्वारा ही करवाई गयी थी जिसे बाद में श्री माधवाचार्य जी ने आगे बढ़ाया था।