18 मईनर्मदा प्रेमी अनिल माधव दवे जी.की.पुण्यतिथि पर विशेष-के सी शर्मा


बहुमुखी प्रतिभा के धनी अनिल माधव दवे का जन्म 14 अक्तूबर, 1956 (विजयादशमी) को बड़नगर (जिला उज्जैन, मध्य प्रदेश) में श्री माधव दवे एवं श्रीमती पुष्पादेवी के घर में हुआ था। यद्यपि सरकारी कागजों में छह जुलाई, 1956 लिखा है। उन पर अपने दादा श्री बद्रीलाल दवे (दा साहब) का विशेष प्रभाव था। दा साहब कांग्रेस, जनसंघ और फिर संघ में सक्रिय रहे। वे मध्यभारत प्रांत के संघचालक तथा इससे पूर्व म.प्र. में जनसंघ के पहले अध्यक्ष भी रहे थे। संघ और जनसंघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता उनके घर आते रहते थे। अतः बचपन से ही अनिलजी को ऐसे महान लोगों का प्रेम और आशीर्वाद मिला। 

श्री माधव दवे रेलवे विभाग में थे। अतः अनिलजी की प्रारम्भिक शिक्षा पिताजी के साथ गुजरात के विभिन्न भागों में हुई। वे एन.सी.सी. में भी रुचि लेते थे। 1964 में वे स्वयंसेवक बने। इंदौर के गुजराती काॅलेज से ग्राम्य विकास एवं प्रबंधन में एम.काॅम करते हुए वे वहां छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन में भी वे सक्रिय थे। कुछ समय नौकरी व उद्योग धंधों में हाथ आजमाने के बाद 1989 में वे संघ के प्रचारक बने और म.प्र. में जिला और विभाग प्रचारक के नाते काम किया। 

अनिलजी काम के योजना पक्ष पर बहुत ध्यान देते थे। उनका यह गुण  संघ के वरिष्ठ जनों के ध्यान में आया। उन दिनों म.प्र. में कांग्रेस सरकार थी। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह संघ के घोर विरोधी थे। वहां भा.ज.पा. की सरकार बने, इसके लिए एक योग्य एवं जुझारू नेता की जरूरत थी। सबका ध्यान साध्वी उमा भारती पर गया। उन्होंने जनसंपर्क शुरू कर दिया; पर चुनाव में योजना पक्ष का भी बहुत महत्व होता है। अतः अनिलजी को उनके साथ लगा दिया गया। इस प्रकार 2004 में कांग्रेस का दस साल का शासन धराशायी हो गया। 

पर कुछ आंतरिक झंझटों के चलते उमाजी को पद छोड़ना पड़ा। अतः अनिलजी मुख्यतः केन्द्र की राजनीति में सक्रिय हो गये। यद्यपि उपाध्यक्ष के नाते म.प्र. में भी उनकी सक्रिय भूमिका बनी रही। उन्होंने गांव की चैपालों में संपर्क कर नर्मदा परिक्रमा, नर्मदा समग्र, नर्मदा महोत्सव जैसे प्रकल्प शुरू किये। भोपाल में उनके निवास का नाम ‘नदी का घर’ था। 2016 में केन्द्र में उन्हें पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का काम मिला। इससे पहले भी वे पर्यावरण संबंधी कई संसदीय समितियों के सदस्य रहे। वे विदेशी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के बदले जैविक खेती तथा पर्यावरण संरक्षण में भारतीय परम्पराओं के समर्थक थे। वे बड़े दानवाकार बांधों का भी विरोध करते थे। 

अनिलजी शौकिया पायलट तो थे ही, एक मौलिक लेखक और चिंतक भी थे। कुछ निबंध, कविताएं तथा सृजन से विसर्जन तक, नर्मदा समग्र, शताब्दी के पांच काले पन्ने, संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, शिवाजी एवं सुराज, यस आई कैन: सो कैन वी उनकी लिखित पुस्तकें हैं। कोपेनहेगन के विश्व पर्यावरण सम्मेलन से लौटकर उन्होंने बियांड कोपेनेहेगन भी लिखी। नवरात्र में वे प्रतिवर्ष उपवास एवं मौन रखते थे। भीषण हृदयरोग होने पर वे चुपचाप मुंबई गये और फिर बड़े आॅपरेशन के बाद ही सबको बताया। यद्यपि इसके बाद वे काम में लग गये; पर रोग ने पीछा नहीं छोड़ा। 

वे म.प्र. से दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे; पर राजनीति में होते हुए भी वे मन से प्रचारक ही थे। उन्होंने 2012 में ही अपनी वसीयत में लिख दिया था कि उनकी स्मृति में कोई स्मारक बनाने की बजाय वृक्ष, नदी और तालाबों का संरक्षण करें। 18 मई, 2017 को दिल्ली में हृदयाघात से हुए देहांत के बाद उनकी इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार नर्मदा और तवी के संगम पर बांद्राभान में किया गया।