कुष्ठ रोगियों को समाज में प्रायः घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। कई लोग अज्ञानवश इस रोग को पूर्व जन्म के पापों का प्रतिफल मानते हैं। ऐसे लोगों की सेवा को अपने जीवन का ध्येय बनाने वाले सदाशिव गोविन्द कात्रे का जन्म देवोत्थान एकादशी (23 नवम्बर, 1901) को जिला गुना (मध्य प्रदेश) में हुआ था। धार्मिक परिवार होने के कारण उनके मन पर अच्छे संस्कार पड़े।
आठ वर्ष की अवस्था में पिताजी के देहान्त के बाद उनके परिवार का पोषण झाँसी में उनके चाचा ने किया। पिता की छत्रछाया सिर पर न होने से गोविन्द के मन में शुरू ही दायित्वबोध जाग्रत हो गया। 1928 में उन्हें रेल विभाग में नौकरी मिली और 1930 में उनका विवाह भी हो गया।
नौकरी के दौरान ही 1943 में उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। उनकी पत्नी बयोलाई भी अच्छे विचारों की थी; पर दुर्भाग्यवश साँप काटने से उसका देहान्त हो गया। अब एक छोटी पुत्री प्रभावती के पालन की जिम्मेदारी पूरी तरह गोविन्दराव पर ही आ गयी।
उनके कष्टों का यहाँ पर ही अन्त नहीं हुआ और उन्हें कुष्ठ रोग ने घेर लिया। वे इलाज कराते रहे; पर धीरे-धीरे लोगों को इसका पता लग गया और लोग उनसे बचने लगे। उनका बिस्तर, पात्र आदि अलग रखे जाने लगे। बस वाले उन्हें बैठने नहीं देते थे। वे अपनी पुत्री के विवाह के लिए चिंतित थे; पर कोई इसके लिए तैयार नहीं होता था। अंततः सरसंघचालक श्री गुरुजी के आग्रह पर एक स्वयंसेवक ने 1952 में उनकी पुत्री से विवाह कर लिया।
एक दिन कात्रे जी अपने सारे धन और माँ को बहिन के पास छोड़कर इलाज के लिए वर्धा आ गये। 1954 में माँ के देहान्त के बाद उन्होंने नौकरी भी छोड़ दी और इलाज के लिए छत्तीसगढ़ में एक मिशनरी चिकित्सालय में भर्ती हो गये। वहाँ उन्होंने उस चिकित्सालय की कार्यपद्धति का अध्ययन किया।
उन्होंने देखा कि मिशनरी लोग निर्धन रोगियों पर ईसाई बनने का दबाव डालते हैं। कात्रे जी ने उन्हें ऐसा करने से रोका। वहाँ के एक चिकित्सक डा0 आइजेक भी धर्मान्तरण के विरोधी थे। कात्रे जी ने इनके साथ प्रबन्धकों के विरुद्ध आन्दोलन किया और राज्यपाल से मिले। राज्यपाल ने कहा कि इनकी शिकायत करने से अच्छा है कि आप भी ऐसा ही काम प्रारम्भ करो।
अब कात्रे जी के जीवन की दिशा बदल गयी। उन्होंने रा0स्व0संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी को पत्र लिखा। आर्थिक सहायता के लिए एक पत्र श्री जुगल किशोर बिड़ला को भी लिखा। धीरे-धीरे सब ओर से सहयोग होने लगा और 5 मई, 1962 को ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ’ का गठन हो गया। चाँपा में भूमि मिलने से वहाँ आश्रम और चिकित्सालय प्रारम्भ हो गया।
कात्रे जी के मधुर स्वभाव और रोगियों के प्रति हार्दिक संवेदना के कारण उस आश्रम की प्रसिद्धि बढ़ने लगी। यद्यपि कई लोग अब भी इसे उपेक्षा से ही देखते थे। एक बार वे अपनी बेटी से मिलने ग्वालियर गये, तो वहाँ भी उन्हें अपमानित होना पड़ा। इसके बाद भी उनका संकल्प नहीं डिगा। श्री गुरुजी से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। इधर के प्रवास पर वे कात्रे जी से अवश्य मिलते थे। संघ के अन्य कार्यकर्ता भी इस काम में सहयोग करते थे।
कात्रे जी इस काम की जानकारी देश के बड़े लोगों तक पहुँचाते रहते थे। राष्ट्रपति डा0 राधाकृष्णन ने इस काम की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपने निजी कोष से 1,000 रु. भेजे। 1971 में संघ की योजना से श्री दामोदर गणेश बापट को इस सेवा प्रकल्प में भेजा गया। इससे कात्रे जी बहुत प्रसन्न हुए।