राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति के सैकड़ों मित्र होते हैं, तो हजारों शत्रु भी होते हैं। सत्ता के साथ ही मित्र और शत्रुओं की संख्या भी बढ़ती और घटती रहती है; पर श्री भैरोंसिंह शेखावत एक ऐसे राजनेता थे, जिनका कोई शत्रु नहीं था। वे सत्ता में रहे या विपक्ष में, उनके द्वार सबके लिए खुले रहते थे। इसलिए लोग उन्हें ‘सर्वमित्र’ या ‘अजातशत्रु’ भी कहते थे।
भैरोंसिह शेखावत का जन्म 23 अक्तूबर, 1903 को राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र के एक छोटे से गांव खाचरियावास में हुआ था। निर्धनता के कारण वे 18 कि.मी पैदल चलकर पढ़ने जाते थे। अपने पिता श्री देवीसिंह के देहांत के कारण उनकी लौकिक शिक्षा कक्षा दस से आगे नहीं हो सकी। उन्होंने परिवार के पालन के लिए खेती और पुलिस में नौकरी भी की। 1952 में उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश कर मुख्यमंत्री से लेकर उपराष्ट्रपति तक की यात्रा की। वे दस बार विधायक रहे और केवल एक बार विधानसभा चुनाव हारे।
1952 में श्री भैरोंसिंह भारतीय जनसंघ के टिकट पर विधायक बने। जनसंघ ने अपने घोषणापत्र में जमींदारी प्रथा का विरोध किया था; पर जीतने वाले विधायक जमींदार परिवारों से ही थे। विधानसभा में प्रस्ताव आने पर जनसंघ के अधिकांश विधायकों ने इसका विरोध किया; पर भैरोंसिंह इसके समर्थन में डटे रहे और प्रस्ताव को पारित कराया। इसी प्रकार दिवराला कांड के बाद जब राजस्थान के क्षत्रिय सती प्रथा के समर्थन में खड़े थे, तो भैरोंसिंह ने अपनी बिरादरी की नाराजगी की चिन्ता न करते हुए इसका खुला विरोध किया।
श्री शेखावत 1977, 1990 तथा 1993 में राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। तीन बार मुख्यमंत्री, कई बार विपक्ष के नेता, एक बार राज्यसभा सदस्य और फिर उपराष्ट्रपति रहने के बाद भी उनका जीवन सादगी से भरपूर था। सायरन बजाती गाड़ियों के लम्बे काफिले उन्हें पसंद नहीं थे। वे सामान्य व्यक्ति की तरह लालबत्ती पर रुक कर प्रतीक्षा कर लेते थे। समय मिलने पर उपराष्ट्रपति रहते हुए भी वे अपनी गाय को स्वयं दुह लेते थे।
श्री शेखावत संसदीय परम्पराओं का बहुत सम्मान करते थे। राज्यसभा के उपसभापति रहते हुए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि सभी तारांकित प्रश्नों के उत्तर शासन दे तथा प्रश्नकाल बाधित न हो। सदन की कार्यवाही के बारे में उनकी समझ बहुत गहन थी। भारतीय भाषाओं के प्रति उनके मन में अत्यधिक प्रेम था। विदेश प्रवास में भी वे सदा हिन्दी ही बोलते थे।
प्रबल इच्छाशक्ति के धनी श्री शेखावत के हृदय की दो बार शल्यक्रिया हुई। फिर भी 83 वर्ष की अवस्था में उन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा। यद्यपि इसमें वे पराजय हुए। इस पर उन्होंने उपराष्ट्रपति पद से भी त्यागपत्र दे दिया। आज तो भ्रष्टाचार और शिष्टाचार पर्याय बन गये हैं; पर वे राजनीति में वे शुचिता के प्रतीक थे। यह जानकर लोग आश्चर्य करते थे कि विदेश प्रवास से लौटकर वे पूरा हिसाब तथा बचा हुआ धन भी शासन को लौटा देते थे।
श्री शेखावत राजनीति के कुशल खिलाड़ी थे। वे अपने समर्थकों तथा विरोधियों की कमजोरियों की फाइल बनाकर रखते थे। जब कभी कोई आंख दिखाता, वे उसकी फाइल दिखाकर उसका मुंह बंद कर देते थे। इसी बल पर वे राजस्थान में अपराजेय बने रहे। वे सत्ता में हों या विपक्ष में, प्रदेश की राजनीति उनके इशारों पर ही चलती थी। उपराष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद उन्होंने दिल्ली की बजाय अपनी कर्मभूमि जयपुर में रहना पसंद किया।