परमाणुशास्त्र के जनक आचार्य कणाद पर विशेष-के सी शर्मा
महान परमाणुशास्त्री आचार्य कणाद 6 सदी ईसापूर्व गुजरात के प्रभास क्षेत्र (द्वारका के निकट) में जन्मे थे। इन्होने वैशेषिक दर्शनशास्त्र की रचना की... दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। माना जाता है कि परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार सर्वप्रथम इन्होंने किया था इसलिए इन्ही के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा।
महर्षि कणाद कहते हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं।
ईसा से ६०० वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन (6 सितम्बर 1766 – 27 जुलाई 1844) की संकल्पना मेल खाती है या कहें कि डाल्टन ने यहीं से #कॉपी किया।
कणाद ने जॉन डाल्टन से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन कर दिया था।
कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं बल्कि ऐसी इकाई को ‘परमाणु‘ नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते।
कणाद आगे यह भी कहते हैं कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक‘ का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मालिक्यूल‘ लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। यहां कणाद रासायनिक बंधता की ओर इंगित कर रहे हैं।
वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन आफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी पश्चिम के विद्वानों द्वारा यहीं से ली गईं हैं।
ब्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने आज से हजारों वर्ष पूर्व अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था।
कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के पश्चिमी विज्ञान से भी आगे जाता है।
महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। दूसरी बात वे कहते हैं कि द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत् यानी विशाल व्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।
वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं। (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) ।
कणादकृत वैशेषिकसूत्र - इसमें दस अध्याय हैं।
वैशेषिकसूत्र के दो भाष्यग्रन्थ हैं - रावणभाष्य तथा भारद्वाजवृत्ति । वर्तमान में दोनो अप्राप्य हैं।
पदार्थधर्मसंग्रह (प्रशस्तपाद, 4 वी सदी के पूर्व) वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यद्यपि इसे वैशेषिकसूत्र का भाष्य कहा जाता है किन्तु यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ है।
पदार्थधर्मसंग्रह की टीका "व्योमवती" (व्योमशिवाचार्य, 8 वीं सदी),
पदार्थधर्मसंग्रह की अन्य टीकाएँ हैं- 'न्यायकंदली' (श्रीधराचार्य, 10 वीं सदी), "किरणावली" (उदयनाचार्य 10 वीं सदी), लीलावती ( श्रीवत्स, ११वीं शदी)।
पदार्थधर्मसंग्रह पर आधारित चन्द्र के 'दशपदार्थशास्त्र' का अब केवल चीनी अनुवाद प्राप्य है।
ग्यारहवीं सदी के आसपास रचित शिवादित्य की 'सप्तपदार्थी' में न्याय तथा वैशेषिक का सम्मिश्रण है।
अन्य : कटंदी, वृत्ति-उपस्कर (शंकर मिश्र 15 वीं सदी), वृत्ति, भाष्य (चंद्रकांत 20 वीं सदी), विवृत्ति (जयनारायण 20 वीं सदी), कणाद-रहस्य, तार्किक-रक्षा आदि अनेक मौलिक तथा टीका ग्रंथ हैं।
द्रव्य जिसमें "द्रव्यत्व जाति" हो वही द्रव्य है। कार्य के समवायिकरण को द्रव्य कहते हैं।द्रव्य गुणों का आश्रय है। पृथ्वी, जल, तेजस, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मनस् ये नौ "द्रव्य" कहलाते हैं। इनमें से प्रथम चार द्रव्यों के नित्य और अनित्य, दो भेद हैं। नित्यरूप को "परमाणु" तथा अनित्य रूप को कार्य कहते हैं। चारों भूतों के उस हिस्से को "परमाणु" कहते हैं जिसका पुन: भाग न किया जा सके, अतएव यह नित्य है। पृथ्वी परमाणु के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के गुण भी नित्य है।
जिससे गंध हो वह "पृथ्वी", जिसमें शीत स्पर्श हो वह "जल" जिसमें उष्ण स्पर्श हो वह "तेजस्", जिनमें रूप न हो तथा अग्नि के संयोग से उत्पन्न न होने वाला, अनुष्ण और अशीत स्पर्श हो, वह "वायु", तथा शब्द जिसका गुण हो अर्थात् शब्द का जो समवायीकरण हो, वह "आकाश" है। ये ही 'पंचभूत' भी कहलाते हैं व यही पदार्थ की 5 अवस्थाएं भी बताई गयीं हैं।
यह जानना चाहिए कि उत्पन्न होनेवाले जीवों के कल्याण के लिए परमात्मा में सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जिससे जीवों के अदृष्ट कार्योन्मुख हो जाते हैं। परमाणुओं में एक प्रकार की क्रिया उत्पन्न हो जाती है, जिससे एक परमाणु, दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाते हैं। दो परमाणुओं के संयोग से एक "द्रव्यणुक" उत्पन्न होता है। पार्थिव शरीर को उत्पन्न करने के लिए जो दो परमाणु इकट्ठे होते हैं वे पार्थिव परमाणु हैं। वे दोनों उत्पन्न हुए "दव्यणुक" के समवायिकारण हैं। उन दोनों का संयोग असमवायिकारण है और अदृष्ट, ईश्वर की इच्छा, आदि निमित्तकारण हैं। इसी प्रकार जलीय, तैजस आदि शरीर के संबंध में समझना चाहिए।
यह स्मरण रखना चाहिए कि सजातीय दोनों परमाणु मात्र ही से सृष्टि नहीं होती। उनके साथ एक विजातीय परमाणु, जैसे जलीय परमाणु भी रहता है। "द्रव्यणुक" में अणु-परिमाण है इसलिए वह दृष्टिगोचर नहीं होता। "दवयणुक" से जो कार्य उत्पन्न होगा वह भी अणुपरिमाण का ही रहेगा और वह भी दृष्टिगोचर न होगा। अतएव दव्यणुक से स्थूल कार्य द्रव्य को उत्पन्न करने के लिए "तीन संख्या" की सहायता ली जाती है। न्याय-वैशेषिक में स्थूल द्रव्य, स्थूल द्रव्य का महत् परिमाणवाले द्रव्य से तथा तीन संख्या से उत्पन्न होता है। इसलिए यहाँ दव्यणुक की तीन संख्या से स्थूल द्रव्य "त्र्यणुक" या "त्रसरेणु" की उत्पत्ति होती है। चार त्र्यणुक से चतुरणुक उत्पन्न होता है। इसी क्रम से पृथिवी तथा पार्थिव द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। द्रव्य के उत्पन्न होने के पश्चात् उसमें गुणों की भी उत्पत्ति होती है। यही सृष्टि की प्रक्रिया है।
संसार में जितनी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं सभी उत्पन्न हुए जीवों के भोग के लिए ही हैं। अपने पूर्वजन्म के कर्मों के प्रभाव से जीव संसार में उत्पन्न होता है। उसी प्रकार भोग के अनुकूल उसके शरीर, योनि, कुल, देश, आदि सभी होते हैं। जब वह विशेष भोग समाप्त हो जाता है, तब उसकी मृत्यु होती है। इसी प्रकार अपने अपने भोग के समाप्त होने पर सभी जीवों की मृत्यु होती है।
इनका ध्येय है कि बिना कारण के नाश हुए कार्य का नाश नहीं हो सकता। अतएव सृष्टि की तरह संहार के लिए भी परमाणु में ही क्रिया उत्पन्न होती है और परमाणु तो नित्य है, उसका नाश नहीं होता, किंतु दो परमाणुओं के संयोग का नाश होता है और फिर उससे उत्पन्न "द्रव्यणुक" रूप कार्य का तथा उसी क्रम से "त्र्यणुक" एवं "चतुरणुक" तथा अन्य कार्यों का भी नाश होता है।
महर्षि कणाद ने परमाणु को ही समझाने में अपना जीवन दिया , इसे ही सृष्टि का मूल तत्व माना। कहते हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनकी अंतिम अवस्था में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम लें, तो कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव: पीलव: पीलव: अर्थात् परमाणु, परमाणु, परमाणु।
साभार ॥