सनातन धर्म में “कण-कण में भगवान” का सुंदर भाव हृदय को सदैव से आनंदित करता रहा है।
शास्त्र और संतों के अनुसार इस जगत में जो कुछ भी चराचर रूप देख पा रहे हैं उसकी उत्पत्ति, प्रकृति रूपी माँ ‘योगमाया’ की कृपा से और विनाश भी माँ की रुष्टता से ही है।
प्राचीन काल से ही सनातन धर्म की समृद्ध परम्पराओं एवं ज्ञान ने प्रकृति के अनुरूप धार्मिक एवं सामाजिक नियम एवं दायित्व निर्धारित किए हैं। प्रकृति और सनातन धर्म को पृथक करके नहीं देख सकते अपितु सनातन धर्म का मूल भाव या कहें आधार प्रकृति पर ही टिका है।
जीवन के लिए भोजन एवं भोग सभी प्रकृति से ही तो प्राप्त हो रहा है।
वास्तव में जो भी चराचर का दर्शन अथवा भोग कर रहे हैं, सब प्रकृति से ही तो ले रहे हो, अतः सनातन धर्म में कण कण में भगवान का भाव, प्रकृति और परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन भी है।
प्रभु ने भाव के प्रभाव में अनेकानेक लीलाएँ भी प्रकट की हैं। शास्त्र, श्रुति, स्मृतियों में भी इस भाव के बड़े ही सुंदर दर्शन होते हैं। ऐसे प्रसंगों से कण कण में भगवान की जो अवधारणा सनातन धर्म में विद्यमान है, बलवती होती है।
भक्तों के दृढ़ विश्वास और प्रेम ने प्रभु का आसन भी हिला दिया था, ऐसे भी अनेकानेक दिव्य प्रसंग हैं।
संत एकनाथ जी, संतों की एक टोली के साथ प्रयागराज के पवित्र जल से ज्योतिर्लिंग रामेश्वर (मतान्तर से बैधनाथ धाम) में जलाभिषेक की अभिलाषा लिए निरन्तर नाम संकीर्तन करते चले जा रहे थे। दूर से मंदिर के शिखर के दर्शन होते ही संतों का उत्साह और भी प्रबल हो उठा।
संतगण उद्दाम संकीर्तन करते आगे बढ़ रहे थे कि तभी संतों की दृष्टि सड़क किनारे प्यास से व्याकुल बीमार गधे पर पड़ी। करुणा तो सभी संतों के हृदय में जाग्रत हुई, किंतु वह हृदय में ही क्षमा माँगते हुए आगे चल दिए। अरे यह तीर्थ का जल तो भोले बाबा के निमित्त दूर से ला रहे हैं। यदि हमने इस जीव को पिला दिया तो संकल्प की हानि हो सकती है।
अपनी धुन में मग्न संत एकनाथ जी महाराज की दृष्टि प्यास से व्याकुल, जीभ निकाले, ज़मीन पर सर पटकते गधे पर पड़ी, संत हृदय व्याकुल हो उठा।
जीव में ही शिव के दर्शन होने लगे।
मंदिर शिखर को प्रणाम कर कहा, हे सर्वव्यापी नाथ आप स्वयं रूप समस्त चराचर में व्याप्त हैं, आप ही तो सृष्टि के कण कण में निवास करते हो। ऐसा ध्यान कर जल कलश ले कर गधे के समीप पहुँचे, हृदय में शिव का ध्यान और मुख में अखंड जप अनवरत चल रहा था, चूँकि संत एकनाथ जानते थे कि गर्दभ बहुत प्यासा है और कहीं पिलाते समय जल छलक कर व्यर्थ न हो जाए, अतः अपनी जंघा पर गर्दभ का सिर रखा और तीर्थ का जल गधे को बड़े ही प्रेम से पिलाने लगे।
संतजन बताते हैं कि संत एकनाथ अभिभूत हो उठे जब उन्होंने गर्दभ के स्थान पर, अपनी जंघा पर सिर रखे जल ग्रहण करते, भगवान भोले नाथ के दर्शन किए।
भगवान की ऐसी दुर्लभ कृपा अनन्य समदर्शी और कण-कण में भगवान के भाव को धारण करने से ही सम्भव हुई। यही वह भाव है जो कण कण में भगवत् तत्व को उद्घाटित करता है।
अब शिव दर्शन की कामना में यदि हम जल कलश लेकर प्यासे गधे को खोजते फिरें तो क्या शिव के दर्शन कर पाएँगे? नहीं क्योंकि यहाँ भाव लुप्त हो गया है और हमने इस प्रसंग से युक्ति खोज ली है। भगवान की प्राप्ति भाव से ही सम्भव है। युक्ति से नहीं। यही है सनातन धर्म की विशेषता।
यही है सनातन धर्म का भाव, सनातन धर्म की विशालतासनातन धर्म की सुंदरता। कण कण में जहां बसते हैं राम।
मंदिर के रास्ते में कोई बन्दर प्रेम से अपने एक हाथ से तुम्हारा हाथ पकड़ कर दूसरे हाथ से भोग के लड्डू छीन ले तो तुम्हारी चीख़ निकलेगी या प्रेम छलकेगा ?
भय के भाव के साथ तो प्रेम प्रकट ही नहीं हो सकता और प्रयास के बाद भी यदि लड्डू नहीं बचा सके तो कण कण में भगवान तो हैं ही !
लड्डू तो गए, अब बन्दर में भी भगवान के दर्शन कर पुण्य कमा लें तो अच्छा ही है। यह भाव है या चतुराई? गाय अगर तुम्हारी तरफ़ भोजन की अभिलाषा में गति से लपके, तो “भागो “ का भाव आएगा या संत एकनाथ की कथा याद आएगी।
ध्यान से देखोगे तो समझ जाओगे कि जो सारी धारणाएँ और ज्ञान चारों ओर देख-सुन रहे हो! इसका कोई बहुत अर्थ सांसारिक जीवन में है नहीं, क्योंकि आचरण और व्यवहार परिस्थिति और व्यक्ति की सामर्थ के अनुरूप बदल जाता है।
जीवन इतना प्रपंची हो गया है कि प्रेम अथवा क्रोध भी बिना स्वार्थ के प्रकट नहीं हो रहा है। कथनी और करनी पर स्वार्थ का ऐसा रंग चढ़ा है कि आत्मा की आवाज़ तो भ्रम और मिथ्या ही लगती है।
वैसे अपनी अनुकूलता और स्वयं की प्रसन्नता के लिए हम अपने जीवन की असहज अथवा विशेष घटनाओं के घटित होते समय, आत्म संतुष्टि के लिए उन घटनाओं को मीरा बाई, सूरदास, कबीरदास, एकनाथ जी आदि अनेक महापुरुषों से जोड़ लेते हैं। भाव सबके लिए सम है, किससे जुड़े, यह तो उस समय जो स्मृति में आ गया। बन बैठे उसी के।
निन्यानवे के फेर में, गंगा स्नान को नहीं जा पा रहे! “मन चंगा तो कठोती में गंगा” के भाव में लगाने लगे गोते! संत रविदास जी महाराज पधार गए हृदय में।
तथागत महात्मा बुद्ध ने भी मध्यमार्ग को ही कल्याणकारी बताया है।
अनेकानेक महापुरुषों एवं संतों ने यथासम्भव पाखंड और आडम्बर से बचने की ही सीख दी है। यदि झांकें अपने भीतर तो जो भी थोड़ा बहुत ज्ञान है वो भी पाखंड, अहंकार, स्वार्थ और लोभ के रंग में सराबोर ही दिखेगा।
संसार में सांसारिक विधान और नियमों के अंतर्गत ही जीवन जी सकते हो। सांसारिक व्यवस्थाओं और नियमों का पालन आवश्यक हो सकता है किंतु प्रयास यही रहना चाहिए कि धर्म और परमात्मा के समक्ष सत्य निष्ठ भाव बना रहे, अर्थात् संसार और आध्यात्मिक जगत दोनों की कुछ मर्यादाएँ एवं नियम हैं।
यथासंभव दोनों को आदर देना ही धर्म है। धर्म ही इस नश्वर संसार का आधार है। यदि धर्म ही नहीं है तो संसार मात्र भोग और रोग ही दे सकता है।
द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण ने दुर्योधन के यहाँ भोजन प्रसाद न लेकर विदुर जी के यहाँ रूखा सूखा प्रसाद लिया था। भगवान वैभव में नहीं हैं – भाव में अवस्थित हैं। जहां तक सम्भव हो जीवन में कथनी और करनी में अन्तर नहीं होना चाहिए। यदि लोक-परलोक में मंगल की कामना है तो धार्मिक और जनसेवा के कार्यों में तो और भी विशेष सावधानी रखनी चाहिए।