बंगाल में संघ के कार्य को दृढ़ आधार देने वाले श्री वसंतराव भट्ट का जन्म 10 अक्तूबर, 1926 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर नगर में हुआ था। वसंतराव पर उनके पिता श्री विनायक राव भट्ट की छत्रछाया लम्बे समय नहीं रही। अतः बड़े भाई ने ही पिता के समान इनका पालन-पोषण किया।
विद्यालयी शिक्षा ग्वालियर में पूर्ण कर वसंतराव ने नागपुर विश्वविद्यालय से मराठी भाषा में विशेषज्ञता के साथ एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। फिर कुछ समय उन्होंने नौकरी भी की। वे बचपन से ही संघ की शाखा में जाते थे। नागपुर में वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की प्रेरणा से 1947 में उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया और नौकरी को सदा के लिए राम-राम कह दिया।
प्रारम्भ में उन्हें महाकौशल तथा फिर जबलपुर विभाग का काम दिया गया। उनके प्रचारक बनने के अगले ही वर्ष संघ पर प्रतिबंध लग गया; पर वे श्री एकनाथ रानाडे के स्नेेहिल मार्गदर्शन में बिना विचलित हुए काम करते रहे।
1956 में उन्हें बंगाल के हुगली विभाग का काम दिया गया। उन्होंने शीघ्र ही बंगला सीख ली तथा वहां के रीति-रिवाजों से समरस होकर ‘वसंत दा’ हो गये। एकनाथ जी ने उन्हें कुछ लोगों से मिलवा दिया था; पर आगे का मार्ग अब उन्हें ही बनाना था। कार्यालय न होने के कारण वे रात में रेलवे स्टेशन पर सोते थे। 1958 में उन्हें प्रांत प्रचारक श्री अमलकुमार बसु का सहयोगी तथा 1960 में बंगाल के प्रांत प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
बंगाल में उन दिनों संघ का काम मुख्यतः नगर के व्यापारी वर्ग में था। वसंत दा ने वामपंथ प्रभावित होने पर भी गांवों में सघन प्रवास किया। 1975 में आपातकाल लगने पर वे भूमिगत होकर काम करते रहे और पुलिस की पकड़ में नहीं आये। इस दौरान बंगाल में 3,000 लोगों ने जेल-यात्रा की।
आपातकाल के बाद अन्य अनेक संगठनों की तरह ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के काम को भी देश भर में फैलाने का निर्णय हुआ। अतः 1977 में वसंत दा को सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत का काम दिया गया। 1980 में उन्हें अ.भा. सह संगठन मंत्री तथा फिर अ.भा.संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी।
वनवासी कल्याण आश्रम के काम की दृष्टि से वसंत दा को पूर्वोत्तर के काम का भगीरथ कहा जाता था। क्योंकि उन्होंने वहां शून्य से काम प्रारम्भ कर अगले 25 वर्ष में उसे प्रभावी स्थिति में पहुंचा दिया। कोलकाता में उन्होंने ‘कल्याण भवन’ बनवाया, जो पूर्वोत्तर की गतिविधियों का केन्द्र बना है।
बंगाल में मछली बहुत खाई जाती है; पर वसंत दा निरामिष थे। जिन लोगों को यह पता था, वहां तो व्यवस्था हो जाती थी; पर बाकी जगह वे ‘माछेर झोल’ में से मछली निकाल कर उसकी तरी से चावल खा लेते थे। अति प्रातः जागरण, दो समय की पूजा और व्यायाम के प्रति वे अत्यधिक आग्रही थे। अंतिम दिनों में बिस्तर पर रहते हुए भी वे हाथ-पैर हिला लेते थे।
क्रोध और अहंभाव से मुक्त वसंत दा की आवश्यकताएं बहुत कम थीं। बंगाल में चटाई की सामग्री से थैले बनते हैं। ऐसे एक थैले में उनके कपड़े तथा दूसरे में साहित्य रहता था। अर्थाभाव के कारण मीलों पैदल चलना उनके लिए सामान्य बात थी। सारी रात रेल या बस में खड़े हुए यात्रा करने पर भी, बिना विश्राम किये वे अगले दिन के निर्धारित कार्यक्रम मुस्कुराते हुए पूरे करते थे।
वृद्धावस्था में वे कोलकाता के संघ कार्यालय (केशव भवन) पर रहते हुए वहां आने वालों से संघ तथा वनवासी कल्याण आश्रम के काम के बारे में पूछताछ करते रहते थे। 87 वर्ष की आयु में 26 अप्रैल, 2013 को प्रातः पांच बजे कोलकाता के संघ कार्यालय पर ही वसंत दा का निधन हुआ।