20 अप्रैल उड़नपरी पी.टी. उषा जी का जन्मदिन पर विशेष-के सी शर्मा



पी.टी. उषा पहली महिला खिलाड़ी है, जिन्होंने अन्तरराष्ट्रीय खेल जगत् में भारत का नाम ऊँचा किया। उनका पूरा नाम पायोली थेवरापारम्पिल उषा है। उनका जन्म 20 अप्रैल, 1964 को केरल में कालीकट के निकट पायोली नामक गाँव में हुआ।

उनका बचपन घोर गरीबी में बीता। खेलना तो बहुत दूर पढ़ने और खाने की भी ठीक व्यवस्था नहीं थी। 1976 में केरल सरकार ने जब महिलाओं के लिए खेल विद्यालय की स्थापना की, तो उषा ने उसमें प्रवेश ले लिया। यहाँ से उनकी प्रतिभा का विकास होने लगा। उस समय उन्हें 250 रु0 प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलती थी। इसी में उन्हें सभी प्रबन्ध करने होते थे।

1977 में केवल 13 साल की अवस्था में उषा ने 100 मीटर की दौड़ में राष्ट्रीय कीर्तिमान बनाया। 1979 में उन्हें राष्ट्रीय खेल विद्यालय में प्रवेश मिल गया। वहाँ उन पर प्रशिक्षक श्री ओ.एम.नाम्बियार की दृष्टि पड़ी। उन्होंने पी.टी.उषा के अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचान लिया और कठोर प्रशिक्षण द्वारा उसे निखारने में जुट गये। उन दिनों लड़कियाँ राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कम ही भाग लिया करती थीं; पर उषा ने इस परम्परा को तोड़ा।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने पहली बार 1982 के एशियाई खेलों में भाग लिया। इन खेलों में उन्हें 100 और 200 मीटर की दौड़ में रजत पदक प्राप्त हुआ। इससे उनका साहस बढ़ा। 1983 में कुवैत में आयोजित फील्ड चैम्पियनशिप में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता और नया एशियाई कीर्तिमान भी बनाया। अब उनकी दृष्टि ओलम्पिक खेलों पर थी। वह ओलम्पिक में पदक जीतकर देश का नाम ऊँचा करना चाहती थी।

1986 का लास एजेंल्स ओलम्पिक उषा के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु था। वहाँ वह सेकेण्ड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक जीतने से रह गयीं। इससे उन्हें दुःख तो बहुत हुआ; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उसी वर्ष सियोल में हुए एशियाई खेलों में उन्होंने 200 मी0, 400 मी0, 400 मी0 बाधा दौड़ तथा 4 x 400 मीटर रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीता। उनकी इन सफलताओं के कारण लोगों ने उसे ‘पायोली एक्सपे्रस’ कहना शुरू कर दिया।

आगामी सियोल ओलम्पिक में भी वह कोई पदक जीतने में सफल नहीं हो सकीं। उसकी भरपाई उसने 1989 में दिल्ली में आयोजित एशियन टैªक फैडरेशन में चार स्वर्ण और दो रजत पदक जीतकर की। 1990 के बीजिंग एशियाई खेलों में उन्होंने रजत पदक जीता। 1991 में उनका विवाह हो गया। इसके बाद वह सात साल तक खेल जगत् से प्रायः दूर ही रहीं।

1998 में जापान में आयोजित एशियन टैªक फैडरेशन में फिर से उन्होंने भाग लिया और दो कांस्य पदक जीते। यद्यपि वह इस समय एक बच्चे की माँ भी थीं। अपने अदम्य साहस एवं इच्छाशक्ति के बल पर उन्होंने भारत को अन्तरराष्ट्रीय खेल जगत में सम्मान दिलाया। भारतीय ओलम्पिक संघ ने उन्हें शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया। आज भी वह भारत की सर्वाधिक अन्तरराष्ट्रीय पदक जीतने वाली खिलाड़ी हैं।

शासन ने उन्हें 1983 में अर्जुन पुरस्कार तथा 1985 में पद्मश्री से सम्मानित किया। अब वह प्रत्यक्ष प्रतियोगिताओं में तो भाग नहीं लेेतीं; पर लड़कियों के लिए प्रशिक्षण विद्यालय चलाकर भारतीय खेल जगत की नयी प्रतिभाओं को निखारने में लगी हैं।