पूर्वोत्तर भारत में धर्मान्तरण के महाराक्षसों से लड़ने वाले स्वधर्म के कर्मठ सेनानी श्री एच.अंडरसन मावरी का जन्म 12 अप्रैल, 1920 को शिलांग (मेघालय) के लेटुमखराह ग्राम में हुआ था। जब वे 10 वर्ष के थे, तब उनके पूरे परिवार को ईसाई बना लिया गया।
इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे 1943 में सेना में भर्ती हो गये। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1946 में सेना से अवकाश लेकर उन्होंने फिर अध्ययन प्रारम्भ किया तथा गोहाटी वि.वि. से बी.ए. कर शिलांग के शासकीय हाईस्कूल में अध्यापक हो गये।
इस दौरान उन्होंने ईसाई मजहब के प्रचार-प्रसार में काफी समय लगाया। कई जगह वे प्रवचन करने जाते थे; पर इससे उन्हें आध्यात्मिक तृप्ति नहीं हुई। अतः 1966 में नौकरी छोड़कर दर्शन एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन करने के लिए उन्होंने श्रीरामपुर (कोलकाता) के थियोलाॅजिकल काॅलिज में प्रवेश ले लिया। एक वर्ष बाद वे चेरापूंजी के विद्यालय में प्रधानाचार्य हो गये।
इस दौरान उन्होंने विभिन्न धर्मों की तुलना, आदिधर्म एवं चर्च के इतिहास का गहन अध्ययन किया। इससे उन्हें अनुभव हुआ कि ईसाई पादरी जिस खासी धर्म की आलोचना करते हैं, वह तो एक श्रेष्ठ धर्म है। इसकी तुलना में ईसाई मजहब कहीं नहीं ठहरता। अतः 1968 में उन्होंने ईसाई मजहब छोड़कर स्वयं को अपने पूर्वजों के पवित्र खासी धर्म की सेवार्थ समर्पित कर दिया। वे अपने गांव लौट आये और वहां पर ही एक हाईस्कूल के प्राचार्य हो गये।
अब उन्होंने समाचार पत्रों में लेखन भी प्रारम्भ कर दिया। खासी जाति की अवस्था पर इनकी पहली पुस्तक ‘का परखात ऊ खासी’ प्रकाशित हुई। इसके बाद तो खासी एवं स्वधर्म, खासी धर्मसार, भविष्य की झलक, पूर्वी बनाम पश्चिमी संस्कृति तथा अन्य कई लघु पुस्तिकाएं छपीं। स्थानीय भाषा-बोली के साथ ही उनका अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ।
उन्होंने स्वामी विवेकानंद की जीवनी भी लिखी। अब वे गांव-गांव में जाकर खासी धर्म का प्रचार करने लगे। इससे जहां एक ओर खासी जाति का खोया हुआ स्वाभिमान वापस आया, वहां ईसाई षड्यन्त्रों के विफल होने से पादरियों में हलचल मच गयी।
छह मार्च, 1978 को श्री मावरी मेघालय तथा बांगलादेश की सीमा पर स्थित ग्राम नोंगतालांग में आयोजित ‘सेंग खासी सम्मेलन’ में शामिल हुए। उसके बाद से वे खासी जाति के उत्थान के लिए खासी जयन्तिया पहाडि़यों में घूम-घूम कर ‘स्वधर्मों निधनम् श्रेय, परमधर्मो भयावह’ की अलख जगा रहे हैं।
उनके प्रयासों से खासी जाति संगठित हुई तथा ईसाइयों के चंगुल में फंसे हजारों लोग वापस अपने धर्म में लौट आये। उनकी सक्रियता देखकर लोगों ने उन्हें खासी जाति की प्रमुख संस्था ‘सेंग खी लांग’ का अध्यक्ष बना दिया।
पूर्वोत्तर में सघन प्रवास से उनकी ख्याति भारत के साथ ही विदेशों तक जा पहुंची। 1981 में हालैंड तथा बेल्जियम में आयोजित विश्व धर्म सभाओं में श्री मावरी ने खासी धर्म की महत्ता पर प्रभावी व्याख्यान दिये। मेघालय में हिन्दू धर्म तथा स्थानीय जनजातियों की भाषा, बोली, रीति-रिवाज तथा परम्पराओं की रक्षार्थ काम करने वाली विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम आदि संस्थाओं के विचारों से प्रभावित होकर उनकी यह धारणा दृढ़ हुई है कि सेंगखासी आंदोलन विराट हिन्दू धर्म के पुनर्जागरण का ही एक प्रयास है।
अब श्री मावरी पूरे देश के वनवासियों के बीच जाकर उन्हें ईसाइयों के षड्यन्त्रों से सावधान करते हैं। यद्यपि ईसाई मिशनरियों को देश तथा विदेश से भारी सहायता मिलती है, उनके संसाधनों का मुकाबला करना कठिन है। फिर भी श्री मावरी को विश्वास है कि अंतिम विजय सत्य की ही होगी।