24 मार्च
नींव और आधार स्तम्भ दयाचंद जैन जी की पुण्यतिथि पर विशेष-के सी शर्मा
देहरादून उत्तराखंड राज्य की राजधानी है। यहां संघ के काम में नींव और फिर आधार स्तम्भ के रूप में प्रमुख भूमिका निभाने वाले श्री दयाचंद जी का जन्म 12 जुलाई, 1928 को ग्राम तेमला गढ़ी (जिला बागपत, उ.प्र.) में श्रीमती अशर्फी देवी तथा श्री धर्मदास जैन के घर में हुआ था। निकटवर्ती कस्बे दाहा से मिडिल तक की शिक्षा पाकर वे आगे पढ़ाई और कारोबार के लिए देहरादून आ गये। 1942 में यहां पर ही वे स्वयंसेवक बने।
1948 में संघ पर प्रतिबंध के समय सत्याग्रह कर वे तीन माह आगरा जेल में रहे। प्रतिबंध के बाद देहरादून में संघ के प्रायः सभी बड़े कार्यकर्ता काम से पीछे हट गये। ऐसे में दयाचंद जी ने नये सिरे से काम प्रारम्भ किया। 1960 में वे संघ के तृतीय वर्ष के प्रशिक्षण के लिए नागपुर गये। विद्यालयी शिक्षा कम होते हुए भी उन्होंने वहां बौद्धिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
देश, धर्म और समाज पर आने वाले हर चुनौती में वे अग्रणी भूमिका में रहते थे। 1967 में गोरक्षा आंदोलन में वे दिल्ली की तिहाड़ जेल में रहे। 1975 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर वे प्रारम्भ में भूमिगत हो गये और फिर 15 अगस्त को सत्याग्रह कर छह माह के लिए जेल में रहे। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के समय भी वे हर आंदोलन में वे सदा आगे रहे।
दयाचंद जी बहुत दिलेर प्रकृति के व्यक्ति थे। इंदिरा गांधी की हत्या होने पर जब कांग्रेस वाले बाजार बंद कराने निकले, तो दयाचंद जी ने दुकान बंद नहीं की। उन्होंने कहा कि जिसने आपातकाल में पूरे देश को जेल बना दिया था, जिसके कारण मेरी दुकान साल भर बंद रही, उसकी मृत्यु पर मैं दुकान बंद नहीं करूंगा। कांग्रेसी लोग अपना सा मुंह लेकर चुपचाप आगे चले गये।
दयाचंद जी ने मुख्यशिक्षक से लेकर जिला कार्यवाह, जिला संघचालक और प्रान्त व्यवस्था प्रमुख जैसी जिम्मेदारियां निभाईं। वे किसी सूचना की प्रतीक्षा किये बिना स्वयं योजना बनाकर उसे क्रियान्वित करते थे। निर्धन कार्यकर्ताओं की बेटियों के सम्मानपूर्वक विवाह की वे विशेष चिन्ता करते थे।
सामाजिक जीवन में उनका स्थान इतना महत्वपूर्ण था कि झंडा बाजार में उनकी कपड़े की दुकान पर समाज के सब तरह के लोग उनसे परामर्श करने आते थे। कई लोग तो हंसी में कहते थे कि ‘झंडे वाले बाबा’ के पास हर समस्या का समाधान है।
देहराूदन में जब सरस्वती शिशु मंदिर खुला, तो मोती बाजार स्थित संघ कार्यालय में ही उसकी कक्षाएं प्रारम्भ कर दी गयीं। कुछ समय बाद जब तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री भाऊराव देवरस वहां आये, तो उन्होंने शिशु मंदिर को वहां से स्थानांतरित करने को कहा। दयाचंद जी ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और एक स्थान खोजकर नये सत्र में विद्यालय वहां पहुंचा दिया।
शिक्षा के महत्व को समझते हुए सरस्वती शिशु मंदिरों के प्रसार का उन्होंने विशेष प्रयास किया। देहरादून में संघ परिवार की हर संस्था से वे किसी न किसी रूप से जुड़े थे। उनकी सोच सदा सार्थक दिशा में रहती थी। अंतिम दिनों में वे जब चिकित्सालय में भर्ती थे, तो उनसे मिलने आये कुछ कार्यकर्ता किसी की आलोचना कर रहे थे। दयाचंद जी ने उन्हें रोकते हुए कहा कि अच्छा सोचो और अच्छा बोलो, तो परिणाम भी अच्छा ही निकलेगा।
70 वर्ष तक सक्रिय रहे ऐसे श्रेष्ठ कार्यकर्ता का देहांत 24 मार्च, 2012 को हुआ।