भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय उन कुछ साहसी लेखकों को भी है, जिन्होंने प्राणों की चिन्ता किये बिना सत्य इतिहास लिखा। ऐसे ही एक लेखक थे पण्डित सुन्दरलाल, जिनकी पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लड़ने वालों को सदा प्रेरणा दी।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को दबाने के बाद अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुस्लिमों में मतभेद पैदा किया। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्र्तगत उन्होंने बंगाल का विभाजन कर दिया।
पंडित सुंदरलाल ने इस विद्वेष की जड़ तक पहुँचने के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों तथा इतिहास का गहन अध्ययन किया। उनके सामने अनेक तथ्य खुलते चले गये। इसके बाद वे तीन साल तक क्रान्तिकारी बाबू नित्यानन्द चटर्जी के घर पर शान्त भाव से काम में लगे रहे। इसी साधना के फलस्वरूप 1,000 पृष्ठों का ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक ग्रन्थ तैयार हुआ।
इसकी विशेषता यह थी कि इसे सुंदरलाल जी ने स्वयं नहीं लिखा। वे बोलते थे और प्रयाग के श्री विशम्भर पांडे इसे लिखते थे। इस प्रकार इसकी पांडुलिपि तैयार हुई; पर इसका प्रकाशन आसान नहीं था। सुंदरलाल जी जानते थे कि प्रकाशित होते ही शासन इसे जब्त कर लेगा। अतः उन्होंने इसे कई खंडों में बाँटकर अलग-अलग नगरों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में जोड़ा गया और अन्ततः 18 मार्च, 1928 को पुस्तक प्रकाशित हो गयी।
पहला संस्करण 2,000 प्रतियों का था। 1,700 प्रतियाँ तीन दिन के अन्दर ही ग्राहकों तक पहुँचा दी गयीं। शेष 300 प्रतियाँ डाक या रेल द्वारा भेजी जा रही थीं; पर इसी बीच अंग्रेजों ने 22 मार्च को प्रतिबन्धित घोषित कर इन्हें जब्त कर लिया। जो 1,700 पुस्तकें जा चुकी थीं, शासन ने उन्हें भी ढूँढने का प्रयास किया; पर उसे आंशिक सफलता ही मिली।
इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचार पत्रों ने आवाज उठायी। गान्धी जी ने भी इसे पढ़कर अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में इसके पक्ष में लेख लिखा। सत्याग्रह करने वाले इसे जेल ले गये। वहाँ हजारों लोगों ने इसे पढ़ा। इस प्रकार पूरे देश में इसकी चर्चा हो गयी। दूसरी ओर सुन्दरलाल जी प्रतिबन्ध के विरुद्ध न्यायालय में चले गये। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। सरकारी वकील ने कहा कि यह इसीलिए अधिक खतरनाक है।
इस पर सुन्दरलाल जी ने संयुक्त प्रान्त की सरकार को लिखा। गर्वनर शुरू में तो राजी नहीं हुए; पर 15 नवम्बर, 1937 को उन्होंने प्रतिबन्ध हटा लिया। इसके बाद अन्य प्रान्तों में भी प्रतिबन्ध हट गया। अब नये संस्करण की तैयारी की गयी। चर्चित पुस्तक होने के कारण अब कई लोग इसे छापना चाहते थे; पर सुन्दरलाल जी ने कहा कि वे इसे वहीं छपवायेंगे, जहाँ से यह कम दाम में छप सके। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने इसे केवल सात रु0 मूल्य में छापा। इस संस्करण के छपने से पहले ही 10,000 प्रतियों के आदेश मिल गये थे। प्रकाशन जगत में ऐसे उदाहरण कम ही हैं।
भारत की स्वाधीनता के इस गौरव ग्रन्थ का तीसरा संस्करण 1960 में भारत सरकार ने प्रकाशित किया। अब भी हर तीन-चार साल बाद इसका नया संस्करण प्रकाशित हो रहा है।