जाने चित्तौड़ का दूसरा जौहर जिसमें 13हजार मातृशक्ति ने आत्माहुति दी-के सी शर्मा
मेवाड़ के कीर्तिपुरुष महाराणा कुम्भा के वंश में पृथ्वीराज, संग्राम सिंह, भोजराज और रतनसिंह जैसे वीर योद्धा हुए। आम्बेर के युद्ध में राणा रतनसिंह ने वीरगति पाई। इसके बाद उनका छोटा भाई विक्रमादित्य राजा बना।
उस समय मेवाड़ पर गुजरात के पठान राजा बहादुरशाह तथा दिल्ली के शासक हुमाऊं की नजर थी। यद्यपि हुमाऊं उस समय शेरशाह सूरी से भी उलझा हुआ था। विक्रमादित्य के राजा बनते ही इन दोनों के मुंह में पानी आ गया, चूंकि विक्रमादित्य एक विलासी और कायर राजा था। वह दिन भर राग-रंग में ही डूबा रहता था। इस कारण कई बड़े सरदार भी उससे नाराज रहने लगे।
1534 में बहादुरशाह ने मेवाड़ पर हमला कर दिया। कायर विक्रमादित्य हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। ऐसे संकट के समय राजमाता कर्मवती ने धैर्य से काम लेते हुए सभी बड़े सरदारों को बुलाया। उन्होंने सिसोदिया कुल के सम्मान की बात कहकर सबको मेवाड़ की रक्षा के लिए तैयार कर लिया।
सबको युद्ध के लिए तत्पर देखकर विक्रमादित्य को भी मैदान में उतरना पड़ा। मेवाड़ी वीरों का शौर्य, उत्साह और बलिदान भावना तो अनुपम थी; पर दूसरी ओर बहादुरशाह के पास पुर्तगाली तोपखाना था। युद्ध प्रारम्भ होते ही तोपों की मार से चित्तौड़ दुर्ग की दीवारें गिरने लगीं तथा बड़ी संख्या में हिन्दू वीर हताहत होने लगे। यह देखकर विक्रमादित्य मैदान से भाग खड़ा हुआ।
इस युद्ध के बारे में एक भ्रम फैलाया गया है कि रानी कर्मवती ने हुमाऊं को राखी भेजकर सहायता मांगी थी तथा हुमाऊं यह संदेश पाकर मेवाड़ की ओर चल दिया; पर उसके पहुंचने से पहले ही युद्ध समाप्त हो गया। वस्तुतः हुमाऊं स्वयं मेवाड़ पर कब्जा करने आ रहा था; पर जब उसने देखा कि एक मुसलमान शासक बहादुरशाह मेवाड़ से लड़ रहा है, तो वह सारंगपुर में रुक गया।
उधर विक्रमादित्य के भागने के बाद चित्तौड़ में जौहर की तैयारी होने लगी; पर उसकी पत्नी जवाहरबाई सच्ची क्षत्राणी थी। अपने सम्मान के साथ उन्हें देश के सम्मान की भी चिन्ता थी। वह स्वयं युद्धकला में पारंगत थीं तथा उन्होंने शस्त्रों में निपुण वीरांगनाओं की एक सेना भी तैयार कर रखी थी।
जब राजमाता कर्मवती ने जौहर की बात कही, तो जवाहरबाई ने दुर्ग में एकत्रित वीरांगनाओं को ललकारते हुए कहा कि जौहर से नारीधर्म का पालन तो होगा; पर देश की रक्षा नहीं होगी। इसलिए यदि मरना ही है, तो शत्रुओं को मार कर मरना उचित है। सबने ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष कर इसे स्वीकृति दे दी।
इससे पुरुषों में भी जोश आ गया। सब वीरों और वीरांगनाओं ने केसरिया बाना पहना और किले के फाटक खोलकर जवाहरबाई के नेतृत्व में शत्रुओं पर टूट पड़े। महारानी तोपखाने को अपने कब्जे में करना चाहती थी; पर उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका। युद्धभूमि में सभी हिन्दू सेनानी खेत रहे; पर मरने से पहले उन्होंने बहादुरशाह की अधिकांश सेना को भी धरती सुंघा दी।
यह आठ मार्च, 1535 का दिन था। हिन्दू सेना के किले से बाहर निकलते ही महारानी कर्मवती के नेतृत्व में 13,000 नारियों ने जौहर कर लिया। यह चित्तौड़ का दूसरा जौहर था। बहादुरशाह का चित्तौड़ पर अधिकार हो गया; पर वापसी के समय मंदसौर में हुमाऊं ने उसे घेर लिया। बहादुरशाह किसी तरह जान बचाकर मांडू भाग गया। इन दोनों विदेशी हमलावरों के संघर्ष का लाभ उठाकर हिन्दू वीरों ने चित्तौड़ को फिर मुक्त करा लिया।
के सी शर्मा: *8 मार्च*
*संगठन के मर्मज्ञ माधवराव देवड़े जी के जन्म दिवस पर विशेष-के सी शर्मा*
बालपन में ही संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार का पावन संस्पर्श पाकर जिन लोगों का जीवन धन्य हुआ, माधवराव भी उनमें से एक थे। नागपुर के एक अति साधारण परिवार में उनका जन्म 8 मार्च, 1922 को हुआ था।
एक मन्दिर की पूजा अर्चना से उनके परिजनों की आजीविका चलती थी। मन्दिर में ही उन्हें आवास भी मिला था। इस नाते उनका परिवार पूर्ण धार्मिक था। देवमन्दिर से जुड़े रहने के कारण उनके नाम के साथ ‘देवले’ गोत्र लग गया, जो उत्तर प्रदेश में आकर ‘देवड़े’ हो गया।
माधवराव की सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में हुई। छात्र जीवन में वे कुछ समय कम्युनिस्टों से भी प्रभावित रहे; पर उनकी रुचि खेल और विशेषकर कबड्डी में बहुत थी। गर्मियों की छुट्टियों में जब वे मामा जी के घर गये, तो वहाँ लगने वाली शाखा में हो रही कबड्डी के आकर्षण से वह भी शाखा में शामिल हो गये। कबड्डी के प्रति उनका यह प्रेम सदा बना रहा। प्रचारकों के वर्ग में वे प्रांत प्रचारक होते हुए भी कबड्डी खेलने के लिए के मैदान में उतर आते थे।
मामा जी के घर से लौटकर फिर वे नागपुर की शाखा में जाने लगे। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से बढ़ता गया और वे कब शाखा में तन-मन से रम गये, इसका उन्हें पता ही नहीं लगा। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, अतः घर वालों ने शिक्षा पूरी होने पर नौकरी करने को कहा।
यों तो माधवराव संघ के लिए सम्पूर्ण जीवन देने का निश्चय कर चुके थे; पर वे कुछ समय नौकरी कर घर को भी ठीक करना चाहते थे। एक स्थान पर जब वे नौकरी के लिए गये, तो वहाँ लगातार काम करने का अनुबन्ध करने को कहा गया। माधवराव ने इसे स्वीकार नहीं किया और वे नौकरी को लात मार कर घर वापस आ गये।
यह 1942 का काल था। देश में गांधी जी का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ और ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ जोरों पर था। विभाजन की आशंका से भारत भयभीत था। विश्वाकाश पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल भी गरज-बरस रहे थे। ऐसे में जब द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने युवकों से अपना जीवन देश की सेवा में अर्पण करने को कहा, तो युवा माधवराव भी इस पंक्ति में आ खड़े हुए। श्री गुरुजी ने उन्हें उत्तर प्रदेश के जौनपुर में भेजा।
उत्तर प्रदेश की भाषा, खानपान और परम्पराओं से एकदम अनभिज्ञ माधवराव एक बार इधर आये, तो फिर वापस जाने का कभी सोचा ही नहीं। उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर काम करने के बाद 1968 में वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने। आपातकाल में शाहबाद (जिला रामपुर) में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर मीसा में जेल भेज दिया।
आपातकाल के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय प्रचारक की जिम्मेदारी मिली। हर कार्यकर्ता की बात को गम्भीरता से सुनकर उसे टाले बिना उचित निर्णय करना, यह उनकी कार्यशैली की विशेषता थी। इसीलिए जो उनके सम्पर्क में आया, वह सदा के लिए उनका होकर रह गया।
श्री देवड़े जी मधुमेह से पीडि़त थे। उनका कद छोटा और शरीर हल्का था। फिर भी प्रदेश की हर तहसील का उन्होंने सघन प्रवास किया। वे कम बोलते थे; पर जब बोलते थे, तो कोई उनकी बात टालता नहीं था। प्रवास में कष्ट होने पर 1995-96 में उन्हें विद्या भारती, उत्तर प्रदेश का संरक्षक बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अनेक शिक्षा-प्रकल्पों को नव आयाम प्रदान किये।
77 वर्ष की आयु में निराला नगर, लखनऊ में 23 अगस्त, 1998 को रात में सोते-सोते ही वह चिरनिद्रा में लीन हो गये।