*"आसान नहीं एक औरत होना"के सी शर्मा*
मैं जब पैदा हुई तो मुझसे बाप रूठ गया , ख़ानदान रूठ गया , जैसे तैसे चलना सीखा , फिर बोलना सीखा , फिर जैसे तैसे बड़ी हुई , स्कूल जाना शुरू किया , मेरी शिक्षा पर भी उंगलियां उठनी शुरू हुईं , स्कूल के लिए साइकिल से जब निकलती थी तो रास्ते में मनचले बाइक से पीछा करना शुरू कर देते थे , जो जी में आए कहते थे , बेहद गंदे और अश्लील शब्दों का प्रयोग कर मेरे ना चाहते हुए भी मुझे पुकारते थे , जैसे मैं उनकी जागीर हूँ । क्लास में जाती तो टीचर की गन्दी निगाह मेरे तन के अंगों पर पड़ती , उसकी भी अश्लील और ओछी हरकतें सहनी पड़ती । फिर कॉलेज का दौर शुरू हुआ , बस में सफ़र करती तो , मनचले किसी न किसी बहाने से मेरे जिस्म के अंगों पर स्पर्श करते , ब्रेक लगती तो मेरे ऊपर आ जाते , मैं अकेली , सहमी हुई सी बेबस लड़की , कुछ न कर पाती थी । कॉलेज के अंदर का माहौल स्कूल से भी ज़्यादा गंदा और अश्लील था , फिर शाम को जब कोचिंग से निकलती , तो मेरे बाप की उम्र के लोग मुझे खा जाने वाली नज़र से देखते , मुझे उस समाज में डर लगने लगा था , जहाँ पर स्त्री को देवी कहा जाता है । दिल में एक ख़ौफ़ होता था कि न जाने मेरे साथ कब और क्या हो जाए , मैं सहमी हुई सी घबराई हुई सी चुपचाप निकल जाती थी । जब शादी का वक़्त आया तो माँ बाप ने भी बोझ समझ कर विदा कर दिया , कुछ वक़्त ससुराल में बिताने के बाद पति का प्यार ख़त्म हो गया , मैं उनके लिए केवल उनकी हवस को शांत करने का सामान बन चुकी थी , सास-ससुर का दुर्व्यवहार , जहेज़ के ताने सहती रही । जब बच्चे हुए तो सारी जवानी अपने पति के लिए और बच्चों के पालन पोषण में कुर्बान कर दिया । और ज़िन्दगी का आख़री पड़ाव आया , जब आँखों में रौशनी ना रही , तो सोचा की अपने बच्चों के साए में जीवन काट लूंगी , लेकिन ऐसा न हुआ , बच्चों ने भी वृद्धाश्रम ( Old Home ) छोड़ दिया , अब जब अपने बच्चों की याद आती है तो कंपते हुए हाँथ आसमान की तरफ उठा कर बच्चों की ख़ुशी और सलामती के लिए दुआ कर , बिलख कर रो के अपना मन हल्का कर लेती हूँ । मैं एक बेटी थी , पत्नी थी , बहू थी , माँ भी थी , परंतु मुझे जीवन के किसी भी पड़ाव पर सम्मान न मिल सका । इस जीवन और इस समाज से बस इतना ही सीखा मैंने , इतना आसान नहीं है एक औरत होना ।