उत्तरांचल राज्य मुख्यतः दो पर्वतीय क्षेत्रों, गढ़वाल और कुमाऊं से मिल कर बना है। कुमाऊं को प्राचीन समय से कूर्मांचल कहा जाता है। यहां के प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी श्री बद्रीदत्त पांडेय का जन्म 15 फरवरी, 1882 को हरिद्वार के प्रसिद्ध वैद्य श्री विनायक दत्त पांडेय के घर में हुआ था। अल्पावस्था में माता और पिता के देहांत के बाद इनका लालन-पालन बड़े भाई ने किया।
अल्मोड़ा में पढ़ते समय इन्होंने स्वामी विवेकानंद, महामना मदनमोहन मालवीय तथा ऐनी बेसेंट जैसे महान लोगों के भाषण सुने। बड़े भाई की मृत्यु हो जाने से इन्हें शिक्षा अधूरी छोड़कर 1902 में सरगुजा राज्य में नौकरी करनी पड़ी। इसके बाद उन्होंने नैनीताल में अध्यापन तथा चकराता (देहरादून) की सैनिक कार्यशाला में भी काम किया। 1908 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
पत्रकारिता में रुचि होने से प्रयाग के ‘लीडर’ तथा देहरादून के ‘कॉस्मोपोलिटिन’ पत्रों में काम करने के बाद 1913 में उन्होंने ‘अल्मोड़ा अखबार’ निकाला। जनता की कठिनाई तथा शासन के अत्याचारों के बारे में विस्तार से छापने के कारण कुछ ही दिन में यह पत्र लोकप्रिय हो गया। इससे सरकारी अधिकारी बौखला उठे। उन्होंने इनसे जमानत के नाम पर एक बड़ी राशि जमा करने को कहा। बद्रीदत्त जी ने वह राशि नहीं दी और समाचार पत्र बन्द हो गया।
1918 की विजयादशमी से बद्रीदत्त जी ने ‘शक्ति’ नामक एक नया पत्र प्रारम्भ कर दिया। कुमाऊं के स्वाधीनता तथा समाज सुधार आंदोलनों में इस पत्र तथा बद्रीदत्त जी का बहुत बड़ा योगदान है। 1916 में उन्होंने ‘कुमाऊं परिषद’ नामक संस्था बनाई, जिसे गांधी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ। 1920 में इसके काशीपुर अधिवेशन में पहाड़ में प्रचलित कुली और बेगार जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने के प्रस्ताव पारित किये गये।
‘कुली बेगार प्रथा’ के विरोध में 1921 की मकर संक्रांति पर 40,000 लोग बागेश्वर में एकत्र हुए। बद्रीदत्त जी, हरगोविन्द पंत, मोहन जोशी आदि नेता काफी दिनों से प्रवास कर इसकी तैयारी कर रहे थे। सभा के बीच अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर डाइविल ने सैकड़ों सिपाहियों के साथ वहां आकर सबको तुरन्त चले जाने को कहा; पर बद्रीदत्त जी ने यह आदेश ठुकरा दिया। उनकी प्रेरणा से सब लोगों ने सरयू का जल हाथ में लेकर बाघनाथ भगवान के सम्मुख इस कुप्रथा को न मानने की शपथ ली और इसकी बहियां फाड़कर नदी में फेंक दीं।
इस अहिंसक क्रांति ने बद्रीदत्त जी को जनता की आंखों का तारा बना दिया। लोगों ने उन्हें ‘कूर्मांचल केसरी’ की उपाधि तथा दो स्वर्ण पदक प्रदान किये। 1962 में चीन से युद्ध के समय उन्होंने वे पदक राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दे दिये। स्वाधीनता आंदोलन में वे पांच बार जेल गये। स्वाधीनता से पूर्व तथा बाद में वे उत्तर प्रदेश विधानसभा तथा 1955 में संसद के सदस्य बने।
बद्रीदत्त जी के जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आये। बरेली कारावास के समय इनका पुत्र तारकनाथ जन्माष्टमी के दिन वाराणसी में नहाते समय नदी में डूब गया। वह प्रयाग से से बी.एस-सी कर रहा था। यह सुनकर मुंबई में रह रही इनकी पुत्री जयन्ती ने आत्मदाह कर लिया। इनकी धर्मपत्नी भी बेहोश हो गयीं; पर बद्रीदत्त जी ने संयम नहीं खोया। उन दिनों वे ‘कुमाऊं का इतिहास’ लिख रहे थे। उन्होंने अपने दुख को इस पुस्तक के लेखन में विसर्जित कर दिया। यह शोधार्थियों के लिए आज भी एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रन्थ है।
13 जनवरी, 1965 को बद्रीदत्त जी का देहांत हुआ। उनका दाह संस्कार बागेश्वर में सरयू के तट पर किया गया, जहां से उन्होंने देश की स्वाधीनता और कुली बेगार प्रथा के विरोध में अहिंसक क्रांति का शंखनाद किया था।