प्रत्येक बार मृत्यु के समय आत्मा की अमरता का अनुभव किया जाता है।
*आत्मा अमर है--*
इस बात को हम जानते हैं, हमने अनेक बार पढ़ा है । परंतु इस बात का अभी तक अनुभव नहीं किया गया है। अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया , अनेक संतों के प्रवचन सुने, ( हमने स्वयं ने भी अनेक बार प्रवचनों में गला फाड़- फाड़ कर कहा है) कि " आत्मा अमर है और देह क्षणभंगुर है। " फिर भी मरने तक इस बात का अनुभव नहीं हो पाता। इसी से हम अपने देह को अपना स्वरूप मान बैठे हैं।
जिस प्रकार मेरी कमीज़ मेरे शरीर का आवरण है , उसी प्रकार मेरा देह मेरी आत्मा का आवरण है।
उसी प्रकार मेरा शरीर भी मेरी आत्मा का मात्र आवरण है, ऐसा मैं जानता हूं-- सुनता हूं-- पढ़ता हूं-- कहता हूं। फिर भी अभी तक मुझे पक्का अनुभव नहीं हुआ कि यह " मैं" हूं और यह मेरा देह है और " मैं " देह से बिल्कुल पृथक सत्ता हूं और " मैं " देह से बिल्कुल विलक्षण हूं--- साथ ही देह के गुण- धर्म और मेरे गुण- धर्म बिल्कुल पृथक है-- विरोधाभासी हैं। अतः यह मेरा देह है , परंतु मैं स्वयं देह नहीं हूं।
परंतु ऐसा अनोखा और अद्भुत अनुभव व्यक्ति को मरते समय मृत्युदेव करवाते हैं। यह मृत्युदेव की एक अलौकिक महिमा है। मरते समय जब जीवात्मा देह को त्याग कर देह से बाहर निकलता है, तब वह प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है।
कि यह मैं अलग खड़ा हूं और सामने यह मेरा शरीर पड़ा हैं।
फिर तुरंत ही जीवात्मा को दूसरा देह पकड़ना होता है, उस समय यदि हीन योनि में देह पकड़ना पड़ता है, तो वह घबराता है , और इसीलिए वह छूटे हुए शरीर में पुनः प्रवेश करने का जोरदार प्रयास करता है । परंतु एक बार शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने के बाद उसके पुनः प्रवेश की कोई व्यवस्था नहीं है। अतः वह जीवात्मा उस छूटे हुए शरीर के आसपास भटकता रहता है। जीवात्मा पुराना शरीर छोड़ती है , उससे यदि नया शरीर उच्च कोटि का होता है तो वह जीवात्मा उस शरीर को धारण कर तुरंत ही अपना रास्ता नाप लेती है।
शरीर छूट जाने के बाद यदि उस शरीर में अत्यंत आसक्ति रह गई हो अथवा नया शरीर हीन योनि में प्राप्त होता है, तो जीवात्मा उस छूटे हुए शरीर में पुनः प्रवेश करने के लिए प्रयास करती है ऐसी मान्यता है।
परंतु पुनः उसी शरीर में प्रवेश करने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए हमारे शास्त्रों ने आदेश दिया है कि शरीर के छूटते ही उसे तुरंत उठाकर श्मशान में ले जाकर जला देना चाहिए। जीवात्मा उस समय शरीर के पीछे - पीछे शमशान तक जाती है और जब देखता है कि शरीर को तो जला दिया गया है और अब पुनः प्रवेश का कोई प्रश्न ही नहीं रहता । तभी वह जीवात्मा अपने रास्ते पड़ती है और नया देह पकड़ लेती है ---ऐसी मान्यता है।
फिर भी यदि स्त्री- पुत्रादि, संपत्ति , कोठी आदि में जीवात्मा की आसक्ति रह गई हो, तो वह जीवात्मा उनके आसपास मंडराती रहती है। और इससे उसकी कोई गति न होने के कारण वह बीच में ही भूत योनि में लटक जाती है ऐसी मान्यता है।
यदि कोई जुबान स्त्री दो छोटे बच्चों को छोड़कर मर जाती है, तो उसका जीव (आसक्ति) उन छोटे बच्चों में रह जाती है, और उसे यूं लगा रहता है कि मेरे बच्चों को उनकी नई मां आएगी तो दुखी करेगी। इसी चिंता में उस जीवात्मा की गति नहीं होती और वह बीच में ही भूत योनि में लटक जाती है।
ऐसी परिस्थिति का निर्माण न हो, और जीवात्मा शरीर छोड़कर भूत योनि में भटके बिना अपने कर्मानुसार , नया शरीर धारण कर चलती बने, इस हेतु शास्त्रों ने अनेक प्रकार की विधियों का आयोजन किया है।
मान लीजिए कि किसी प्रकार की लालसा- वासना- कामना- आसक्ति के कारण जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर नहीं धारण करती, और इसलिए वह भूत योनि में भटकती रह जाती है, तो इसके लिए देह छुटने के बाद दसवे दिन--- दसवे के दिन उसके पिंड - दान की विधि की जाती है। यह विधि प्रतीकात्मक है। यदि जीव आत्मा भटकती है, तो उसे बताने के लिए कि देखो--- अब तुम्हारे पिंड (मृत देह का प्रतीक) का हम दान करते हैं--- विच्छेद करते हैं , क्योंकि अब हमारा और तुम्हारा कोई रिणानुबंध--- कोई लेन-देन रहा नहीं है । अतः अब तू कृपा करके अपना रास्ता ले -- और हमें परेशान मत करना । जीव आत्मा की सद्गति-- असद्गति नहीं हुई और वह भूत योनि में भटकती होगी, ऐसी मान्यता के आधार पर उपरोक्त दसवें की विधि प्रतीकात्मक रूप में की जाती है।
क्रमश अब इसी के आगे का भाग, शेष कल। मृत्यु के माहात्म्य पुस्तक से