जाने कैसे हुआ इस सृष्टि का विस्तार के सी शर्मा की कलम से



*सृष्टिका विस्तार-के सी शर्मा*
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श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुर जी ! यहाँ तक मैंने आपको भगवान्‌ की कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रह्माजी ने जगत् की  रचना की, वह सुनिये। सबसे पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ—तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) रचीं। किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टि को देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मन को भगवान्‌ के ध्यान से पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची।

इस बार ब्रह्मा जी ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—ये चार निवृत्तिपरायण ऊर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न किये। अपने इन पुत्रों से ब्रह्माजी ने कहा, ‘पुत्रो ! तुमलोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किन्तु वे जन्मसे ही मोक्षमार्ग (निवृत्तिमार्ग)-का अनुसरण करनेवाले और भगवान्‌ के ध्यान में तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा। जब ब्रह्माजी ने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र (सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार) मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकने का प्रयत्न किया।

किन्तु बुद्धिद्वारा उनके बहुत रोकने पर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापति की भौंहों के बीच में से एक नील-लोहित (नीले और लाल रंग के) बालक के रूप में प्रकट हो गया। वे देवताओं के पूर्वज भगवान्‌ भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे—‘जगत्पिता ! विधाता ! मेरे नाम और रहने के स्थान बतलाइये’। तब कमलयोनि भगवान्‌ ब्रह्मा ने उस बालक की प्रार्थना पूर्ण करने के लिये मधुर वाणी में कहा, ‘रोओ मत’ मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ। देवश्रेष्ठ ! तुम जन्म लेते ही बालक के समान फूट-फूटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें ‘रुद्र’ नामसे पुकारेगी।

तुम्हारे रहनेके लिये मैंने पहलेसे ही हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्रि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप—ये स्थान रच दिये हैं। तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे। तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा—ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो।

लोकपिता ब्रह्माजीसे ऐसी आज्ञा पाकर भगवान्‌ नीललोहित बल, आकार और स्वभावमें अपने-ही-जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे। भगवान्‌ रुद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रह्माजीको बड़ी शङ्का हुई। तब उन्होंने रुद्रसे कहा, ‘सुरश्रेष्ठ ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयङ्कर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अत: ऐसी सृष्टि और न रचो।

तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियोंको सुख देनेके लिये तप करो। फिर उस तपके प्रभावसे ही तुम पूर्ववत् इस संसारकी रचना करना। पुरुष तपके द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योति:स्वरूप श्रीहरिको सुगमतासे प्राप्त कर सकता है। श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—जब ब्रह्माजीने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्रने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करनेके लिये वनको चले गये।

क्रमशः अगला पोस्ट:- “स्कन्ध 03; अध्याय 12; श्रलोक 21 से 40 तक”
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"गीताप्रेस; गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भागवतमहापुराण'
पु० कोड..(1535) से"