राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास के लेखक चंद्रशेखर परमानंद जी पर विशेष


-के सी शर्मा*

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।  प्रायः हर राज्य में अपनी-अपनी भाषाओं में संघ के प्रकाशन संस्थान भी हैं, जहां न केवल संघ अपितु हिन्दू विचार को बढ़ाने वाला साहित्य प्रकाशित होता है। प्रायः सभी बड़े कार्यालयों पर संघ वस्तु भंडार भी हैं, जहां ऐसा साहित्य बिक्री हेतु उपलब्ध हो जाता है। प्रकाशन एवं विक्रय की समुचित व्यवस्था के कारण देश भर में कहीं न कहीं, किसी न किसी भाषा में प्रायः हर दिन संघ की कोई न कोई पुस्तक प्रकाशित हो रही है। प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में बड़े या छोटे समाचार पत्र और जागरण पत्रक भी प्रकाशित हो रहे हैं।

पर जब संघ का काम प्रारम्भ हुआ, तब ऐसा कुछ नहीं था। प्रसिद्धि से दूर रहने की नीति के कारण इस ओर किसी का ध्यान भी नहीं था; पर क्रमशः लेखन और सम्पादन में रुचि रखने वाले कुछ लोगों ने यह काम प्रारम्भ किया। श्री चंद्रशेखर परमानंद (बापूराव) भिषीकर ऐसे लोगों की मालिका के एक सुवर्ण मोती थे।

संघ के संस्थापक पूज्य डा. केशव बलीराम हेडगेवार की पहली जीवनी उन्होंने ही लिखी। इसमें उनकी जीवन-यात्रा के साथ ही संघ स्थापना की पृष्ठभूमि तथा उनके सामने हुआ संघ का क्रमिक विकास बहुत सुंदर ढंग से लिखा गया है। लम्बे समय तक इसे ही संघ की एकमात्र अधिकृत पुस्तक माना जाता था। आगे चलकर उन्होंने श्री गुरुजी, भैया जी दाणी, दादाराव परमार्थ, बाबासाहब आप्टे आदि संघ के अनेक पुरोधाओं के जीवन चरित्र लिखे। इस कारण बापूराव को संघ इतिहास का व्यास कहना नितांत उचित ही है।

बापूराव का जन्म नौ अगस्त, 1914 को हुआ था। वे संघ के प्रारम्भिक स्वयंसेवकों में से एक थे। अतः उन्हें डा. हेडगेवार, श्री गुरुजी तथा उनके साथियों को निकट से देखने एवं उनके अन्तर्मन को समझने का भरपूर अवसर मिला था। संघ की कार्यपद्धति का विकास तथा शाखाओं का नागपुर से महाराष्ट्र और फिर पूरे भारत में कैसे और कब विस्तार हुआ, इसके भी वे अधिकृत जानकार थे।

छात्र जीवन से ही उनकी रुचि पढ़ने और लिखने में थी। इसलिए आगे चलकर जब उन्होंने पत्रकारिता और लेखन को अपनी आजीविका बनाया, तो जीवनियों के माध्यम से संघ इतिहास के अनेक पहलू स्वयंसेवकों और संघ के बारे में जानने के इच्छुक शोधार्थियों को उपलब्ध कराये। कुल मिलाकर उन्होंने संघ के दस वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के जीवन चरित्र लिखे।

एक निष्ठावान स्वयंसेवक होने के साथ ही वे मौलिक चिंतक भी थे। संघ के संस्कार उनके जीवन में हर कदम पर दिखाई देते थे। पुणे के ‘तरुण भारत’ में सम्पादक रहते हुए वे ‘अखिल भारतीय समाचार पत्र सम्पादक सम्मेलन’ (ए.आई.एन.ई.सी.) के सदस्य बने। सामान्यतः पत्रकारों और सम्पादकों के कार्यक्रमों में खाने और पीने की अच्छी व्यवस्था रहती है। आजकल तो इसमें नकद भेंट से लेकर कई अन्य तरह के भ्रष्ट आचार-व्यवहार भी जुड़ गये हैं; पर बापूराव ऐसे कार्यक्रमों में जाने के बाद भी पीने-पिलाने से सदा दूर ही रहे।

सक्रिय पत्रकारिता से अवकाश लेने के बाद भी बापूराव ने सक्रिय लेखन से अवकाश नहीं लिया। उनकी जानकारी, अनुभव तथा स्पष्ट विचारों के कारण विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं उनसे लेख मांगकर प्रकाशित करती रहती थीं। वृद्धावस्था संबंधी अनेक कष्टों के बावजूद पुणे में अपने पुत्र के पास रहते हुए उन्होंने अपने मन को सदा सकारात्मक विचारों से ऊर्जस्वित रखा। बापूराव के बड़े भाई नाना भिषीकर बाबासाहब आप्टे के घनिष्ठ सहयोगी थे। डा. हेडगेवार की योजनानुसार 1931 में वे संघ कार्य के लिए सिन्ध प्रान्त के कराची नगर में गये थे।

संघ इतिहास के ऐसे शीर्षस्थ अध्येता का आठ दिसम्बर, 2008 को महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले के हराली कस्बे में निधन हुआ।