परमपिता परमात्मा और उनके दिव्य दर्शन



के सी शर्मा*
कलियुग के अन्त में धर्म-ग्लानी अथवा अज्ञान-रात्रि के समय, शिव सृष्टि का कल्याण करने के लिए सबसे  पहले तीन सूक्ष्म देवता ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को रचते है और इस कारण शिव ‘त्रिमूर्ति’ कहलाते है | तीन देवताओं की रचना करने के बाद वह स्वयं इस मनुष्य-लोक में एक साधारण एवं वृद्ध भक्त के तन में अवतरित होते है, जिनका नाम वे ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ रखते है |
प्रजा पिता ब्रह्मा द्वारा ही परमात्मा शिव मनुष्यात्माओं को पिता, शिक्षक तथा सद्गुरु के रूप में मिलते है और सहज गीता ज्ञान तथा सहज राजयोग सिखा कर उनकी सद्गति करते है, अर्थात उन्हें जीवन-मुक्ति देते है |

"शंकर द्वारा कलियुगी सृष्टि का महाविनाश"

कलियुग के अन्त में प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सतयुगी दैवी सृष्टि की स्थापना के साथ परमपिता परमात्मा शिव पुरानी, आसुरी सृष्टि के महाविनाश की तैयारी भी शुरू करा देते है | परमात्मा शिव शंकर के द्वारा विज्ञान-गर्वित (Science-Proud) तथा विपरीत बुद्धि अमेरिकन लोगों तथा यूरोप-वासियों (यादवों) को प्रेरित कर उन द्वारा ऐटम और हाइड्रोजन बम और मिसाइल (Missiles) तैयार कराते हैं, जिन्हें कि महभारत में ‘मूसल’ तथा ‘ब्रह्मास्त्र’ कहा गया है | इधर भारत में भी देह-अभिमानी, धर्म-भ्रष्ट तथा विपरीत बुद्धि वाले लोगों (जिन्हें महाभारत की भाषा में ‘कौरव’ कहा गया है) को पारस्परिक युद्ध (Civil War) के लिए प्रेरित होगे |

"विष्णु द्वारा पालना"

विष्णु की चार भुजाओं में से दो भुजाएँ श्री नारायण की और दो भुजाएँ श्री लक्ष्मी की प्रतीक है | ‘शंख’ उनका पवित्र वचन अथवा ज्ञान-घोष की निशानी है, ‘स्वदर्शन चक्र’ आत्मा (स्व) के तथा सृष्टि चक्र के ज्ञान का प्रतीक है, ‘कमल पुष्प’ संसार में रहते हुए अलिप्त तथा पवित्र रहने का सूचक है तथा ‘गदा’ माया पर, अर्थात पाँच विकारों पर विजय का चिन्ह है | अत: मनुष्यात्माओं के सामने विष्णु चतुर्भुज का लक्ष्य रखते हुए परमपिता परमात्मा शिव समझते है कि इन अलंकारों को धारण करने से अर्थात इनके रहस्य को अपने जीवन में उतरने से नर ‘श्री नारायण’ और नारी ‘श्री लक्ष्मी’ पद प्राप्त कर लेती है, अर्थात मनुष्य दो ताजों वाला ‘देवी या देवता’ पद प्राप्त करता है | इन दो ताजों में से एक ताज तो प्रकाश का ताज अर्थात प्रभा-मंडल (Crown of Light) है जो कि पवित्रता व शान्ति का प्रतीक है और दूसरा रत्न-जडित सोने का ताज है जो सम्पति अथवा सुख का अथवा राज्य भाग्य का सूचक है |
इस प्रकार, परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी तथा त्रेतायुगी पवित्र, दैवी सृष्टि (स्वर्ग) की पालना के संस्कार भरते है, जिसके फल-स्वरूप ही सतयुग में श्री नारायण तथा श्री लक्ष्मी (जो कि पूर्व जन्म में प्रजापिता ब्रह्मा और सरस्वती थे) तथा सूर्यवंश के अन्य राजा प्रजा-पालन का कार्य करते है और त्रेतायुग में श्री सीता व श्री राम और अन्य चन्द्रवंशी राजा राज्य करते है |

मालूम रहे कि वर्तमान समय परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा तथा तीनों देवताओं द्वारा उपर्युक्त तीनो कर्तव्य करा रहे है | अब हमारा कर्तव्य है कि परमपिता परमात्मा शिव तथा प्रजापिता ब्रह्मा से अपना आत्मिक सम्बन्ध जोड़कर पवित्र बनने का पुरषार्थ करे व सच्चे वैष्णव बनें | मुक्ति और जीवनमुक्ति के ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार के लिए पूरा पुरुषार्थ करें |

"परमात्मा का दिव्य – अवतरण"

शिव का अर्थ है – ‘कल्याणकारी’ | परमात्मा का यह नाम इसलिए है, वह धर्म-ग्लानि के समय, जब सभी मनुष्य आत्माएं माया (पाँच विकारों) के कारण दुखी, अशान्त, पतित एवं भ्रष्टाचारी बन जाती है तब उनको पुन: पावन तथा सम्पूर्ण सुखी बनाने का कल्याणकारी कर्तव्य करते है | शिव ब्रह्मलोक में निवास करते है और वे कर्म-भ्रष्ट तथा धर्म भ्रष्ट संसार का उद्धार करने के लिए ब्रह्मलोक से नीचे उतर कर एक मनुष्य के शरीर का आधार लेते है | परमात्मा शिव के इस अवतरण अथवा दिव्य एवं अलौकिक जन्म की पुनीत-स्मृति में ही ‘शिव रात्रि’, अर्थात शिवजयंती का त्यौहार मनाया जाता है |
परमात्मा शिव जो साधारण एवं वृद्ध मनुष्य के तन में अवतरित होते है, उसको वे परिवर्तन के बाद ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम देते है | उन्हीं की याद में शिव की प्रतिमा के सामने ही उनका वाहन ‘नन्दी-गण’ दिखाया जाता है | क्योंकि परमात्मा सर्व आत्माओं के माता-पिता है, इसलिए वे किसी माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते बल्कि ब्रह्मा के तन में संनिवेश( प्रवेश) ही उनका दिव्य-जन्म अथवा अवतरण है |
"अजन्मा परमात्मा शिव के दिव्य जन्म की रीति न्यारी"

परमात्मा शिव किसी पुरुष के बीज से अथवा किसी माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते क्योंकि वे तो स्वयं ही सबके माता-पिता है, मनुष्य-सृष्टि के चेतन बीज रूप है और जन्म-मरण तथा कर्म-बन्धन से रहित है | अत: वे एक साधारण मनुष्य के वृद्धावस्था वाले तन में प्रवेश करते है | इसे ही परमात्मा शिव का ‘दिव्य-जन्म’ अथवा ‘अवतरण’ भी कहा जाता है क्योंकि जिस तन में वे प्रवेश करते है वह एक जन्म-मरण तथा कर्म बन्धन के चक्कर में आने वाली मनुष्यात्मा ही का शरीर होता है, वह परमात्मा का ‘अपना’ शरीर नहीं होता |

जब सारी सृष्टि माया (अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि पाँच विकारों) के पंजे में फंस जाती है तब परमपिता परमात्मा शिव, जो कि आवागमन के चक्कर से मुक्त है, मनुष्यात्माओं को पवित्रता, सुख और शान्ति का वरदान देकर माया के पंजे से छुड़ाते है | वे ही सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा देते है तथा सभी आत्माओं को परमधाम में ले जाते है तथा मुक्ति एवं जीवनमुक्ति का वरदान देते है | शिव रात्रि का त्यौहार फाल्गुन मास, जो कि विक्रमी सम्वत का अंतिम मास होता है, में आता है | उस समय कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी होती है और पूर्ण अन्धकार होता है | उसके पश्चात शुक्ल पक्ष का आरम्भ होता हुई और कुछ ही दिनों बाद नया संवत आरम्भ होता है | अत: रात्री की तरह फाल्गुन की कृष्ण चतुर्दशी भी आत्माओं को अज्ञान अन्धकार, विकार अथवा आसुरी लक्षणों की पराकाष्ठा के अन्तिम चरण का बोधक है | इसके पश्चात आत्माओं का शुक्ल पक्ष अथवा नया कल्प प्रारम्भ होता है, अर्थात अज्ञान और दुःख के समय का अन्त होकर पवित्र तथा सुख आने का समय शुरू होता है |
परमात्मा शिव अवतरित होकर अपने ज्ञान, योग तथा पवित्रता द्वारा आत्माओं में आध्यात्मिक जागृति उत्पन्न करते है इसी महत्व के फलस्वरूप भक्त लोग शिवरात्रि को जागरण करते है | इस दिन मनुष्य उपवास, व्रत आदि भी रखते है | उपवास (उप-निकट, वास-रहना) का वास्तविक अर्थ है ही परमत्मा के समीप हो जाना | अब परमात्मा से युक्त होने के लिए पवित्रता का व्रत लेना जरूरी है |