इस धराधाम पर जीवन जीने के लिए हमारे महापुरुषों ने मनुष्य के लिए कुछ नियम निर्धारित किए हैं।
इन नियमों के बिना कोई भी मनुष्य परिवार,समाज व राष्ट्र का सहभागी नहीं कहा जा सकता। जीवन में नियमों का होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि बिना नियम के कोई भी परिवा , संस्था , या देश को नहीं चलाया जा सकता।
इन्हीं नियमों से बना नीतिक , नीतिक से नैतिक एवं नैतिक शब्द से ही नैतिकता का प्रादुर्भाव हुआ।
प्राचीनकाल में प्रत्येक मनुष्य बताये गये नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए समाज के उत्थान में सतते प्रयत्नशील रहकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। जीवन के समस्त गुणों , ऐश्वर्यों की आधारशिला है मनुष्य की नैतिकता,चरित्र एवं नैतिकमूल्य।
एक तरफ जहाँ हमारे आधारस्तम्भ प्राचीन ऋग्वेद में प्रत्येक मनुष्य के लिए
*"असतो मा सदगमय* ,
*तमसो मा ज्योतिर्गमय"*
की अवधारणा स्थापित की गयी , वहीं दूसरी ओर जीवन में नैतिकता के महत्व को प्रतिपादित करते हुए आचार्य चाणक्य ने *"चाणक्यनीति"* , विदुर जी ने "विदुरनीति एवं राजा भर्तृहरि ने *"भर्तृहरिनीतिशतकम्"* के माध्यम से मानवमात्र को नीतियों / नैतिकमूल्यों के साथ जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया है।
नैतिक मूल्यों का संबंध जहां सत्य मार्ग एवं सकारात्मकता से हैं जो कि मनुष्य को चरित्रवान एवं गुणी बनाते हैं ,वहीं असत्य का आचरण करने वाले अंधकारमय रहते हुए नैतिक मूल्यों से पतित को होकर के समाज के लिए एक श्राप बन कर धरती को नर्क बनाने का कार्य करते रहते हैं। नैतिकमूल्य एवं नैतिकता मनुष्य के जीवम का आधारस्तम्भ हैं जिसकी मान्यताओं ने मानवता को जीवित कर रखा है।
आज मनुष्य की नैतिकता का पतन हो रहा है। जिसका मुख्य कारण है,हमारे नौनिहालों को मिलने वाली व्यवसायिक शिक्षा भी कही जा सकती है।
जहाँ पहले विद्यालयों में छात्रों को नैतिकशिक्षा के रूप में एक अलग विषय की शिक्षा दी जाती थी,वहीं आज पाठ्यक्रम से यह विषय ही गायब हो चुका है।नैतिक शिक्षा से अपरिचित होकर हमारे नौनिहाल बिना किसी रीति-नीति के मनमाने ढंग से जीवनयापन करने का प्रयास करते रहते हैं !
ऐसा करने में वे न तो परिवार की मान्यतायें मान पाते हैं और न ही दूसरों का आगर करना उनके शब्दकोष में होता है। इसका परिणाम टूटते परिवारों, विखण्डित होते समाज के रूप में देखने को मिल रहा है।मनुष्य के जीवन में नैतिकता का आरोपण करने का सबसे उचित समय बचपन होता है।
क्योंकि मेरा *पूनम"चतुर्वेदी* का मानना है कि एक बालक का जब जन्म होता है तो वह न तो नैतिक होता है और न ही अनैतिक,वह शूम्य होता है।जीवन के विकास क्रम में धीरे धीरे पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश के अनुसार ही उसमें नैतिकता एवं अनैतिकता का प्रादुर्भाव होता है।एक बालक जब सत्य,अहिंसा एवं ईमानदारी के महत्व को समझकर जीवन में उसका पालन करने लगता है तो समझ लो उसमें नैतिकता का प्रस्फुटन हो रहा है।ऐसा बालक आगे चलकर अपने आदर्शों पर दृढ रहते हुए समाज में सम्मानित होता है वहीं इसके विपरीत जब एक बालक नैतिक मूल्यों को नहीं अर्जित कर पाता तो वह समाज के लिए अनुपयुक्त हो जाता है
जीवन में नैतिकमूल्यों के महत्व को समझते हुए प्रत्येक मनुष्य को अपने व्यस्त समय में से कुछ समय निकालकर अपने बच्चों को इसकी शिक्षा अवश्य देनी चाहिए।