कार्तिक पूर्णिमा के पावन प्रदोषकाल में पूजागृह, घर के आंगन और द्वार, मंदिर, बगीचे, तुलसी के पौधे, आंवले अथवा पीपल के वृक्ष के नीचे, जलाशय और नदी के तट आदि पर दीपक जलाकर देवताओं की दीपावली में हम लोग सम्मिलित हो सकते हैं।
घर की उत्तर-पूर्व दिशा वाले स्थान को देवस्थान माना गया है, वहां दीप प्रज्जवलित कर सकते हैं।
कार्तिक अमावस्या की रात को हम लोगों ने बड़ी धूमधाम से दीपावली मनाई।
उस अवसर पर अधिकांश लोगों के मन में प्रश्न उठा होगा कि उस दीपावली पूजा में विष्णुप्रिया लक्ष्मी जी के साथ भगवान विष्णु की स्थापना व पूजा क्यों नहीं हुई?
इसका शास्त्रीय कारण यह है कि दीपावली चातुर्मास के मध्य पड़ती है,
जब श्रीहरि भगवान विष्णु चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन रहते हैं।
अत: भगवान नारायण का उस अवसर पर अनुपस्थित होना स्वाभाविक है।
इसी कारण दीपावली में लक्ष्मी जी श्रीहरि के बिना पधारती हैं। देवगणों के अधिपति और प्रथम पूज्य होने के कारण गणेशजी उनके साथ देव-समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।
उस दिन कमला (लक्ष्मी जी) जयंती होने के कारण उनकी पूजा-आराधना प्रमुख होती है। मान्यता के अनुसार, जब देवोत्थान एकादशी को भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागते हैं, तब पूर्णिमा के दिन देवता दीपावली मनाते हैं, जिसमें लक्ष्मी नारायण के साथ विराजती हैं।
मान्यता है कि भगवान विष्णु के योगनिद्रा से जागरण से प्रसन्न होकर देवताओं ने पूर्णिमा को लक्ष्मी-नारायण की महाआरती करके दीपोत्सव आयोजित किया था। यही देवताओं की दीपावली है। इस अवसर पर दीपदान व व्रत-पूजा आदि करके हम भी शामिल होते हैं, ताकि हम अपने भीतर देवत्व धारण कर सके। हमारे लिए देवत्व का अर्थ सद्गुण हैं। अत: देव दीपावली हमें आसुरी प्रवृत्तियां अर्थात दुर्गुणों को त्यागकर सद्गुणों को धारण करने को प्रेरित करती है।
मान्यता है कि इस दिन भगवान शंकर ने महादैत्य त्रिपुरासुर का वध करके तीनों लोकों को उसके अत्याचारों से मुक्त कराया था। देवताओं को उनका स्वर्गलोक वापस मिलने पर उन्होंने भव्य दीपोत्सव किया था। यही कारण है कि बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में गंगा तट पर देव-दीपावली महोत्सव अत्यंत भव्यता के साथ मनाया जाता है, जिसे देखने के लिए देश के कोने-कोने से ही नहीं, विदेश से भी लोग पहुंचते हैं। कार्तिक पूर्णिमा की रात में काशी के घाटों पर हजारों दीपक जब जगमगाते हैं तथा गंगा माता की महाआरती होती है, तब शिवपुरी काशी में यह आयोजन चिर स्मरणीय हो जाता है। पद्मपुराण के अनुसार, कार्तिक पूर्णिमा को ही सायं भगवान सायं भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था।
*भीष्म पंचक में तुलसी विवाह*!
कार्तिक शुक्ल एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा के पांच दिनों को 'भीष्मपंचक' कहा जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि शर-शय्या पर लेटे भीष्म पितामह ने पांडवों को इन पांच दिनों में राजधर्म, नीति आदि के साथ विष्णु सहस्रनाम का भी उपदेश दिया था। अनेक श्रद्धालु आज से प्रारंभ हो रहे भीष्मपंचक में भीष्म का तर्पण करने के साथ पांच दिन तक शुद्ध घी का अखंड दीपक जलाकर व्रत रखते हैं। देश के कुछ अंचलों में इन पांच दिनों में सामान्य विवाह आदि न करके तुलसी-शालिग्राम का विवाहोत्सव किया जाता है। वैष्णव कार्तिक शुक्ल एकादशी से कार्तिकी पूर्णिमा तक शालिग्राम रूपी भगवान विष्णु के साथ भगवती तुलसी के विवाह-कार्यक्रम को उत्सव की तरह मनाते हैं। ऐसी मान्यता है कि तुलसी विवाह में भाग लेने वाले युवक-युवतियों का विवाह भविष्य में शीघ्र और निर्विघ्न हो जाता है।
*कार्तिक गंगा स्नान-!*
ब्रहृावैवर्तपुराण तथा देवी भागवत के मतानुसार, कार्तिक पूर्णिमा में रासमंडल पर विराजमान भगवती राधा और भगवान कृष्ण देवी-देवताओं के स्तसे भाव-विभोर होकर द्रवीभूत हो गए थे। गंगाजी राधा-कृष्ण का जलरूपी विग्रह ही हैं। इसीलिए कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान की भी मान्यता है। पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा के स्नान को विशेष पुण्यदायक माना गया है। यहां बहुत बड़ा मेला लगता है। इस वर्ष पद्मक योग के कारण पुष्कर में स्नान दान का महत्व बहुत बढ़ गया है। गंगाजी के तटवर्ती नगरों-ग्रामों में भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्नानार्थी बहुत बड़ी संख्या में जुटते हैं।