के सी शर्मा*
क्रान्तिकारी इतिहास में रुचि रखने वाला शायद ही कोई व्यक्ति हो, जिसने वचनेश त्रिपाठी का नाम न सुना हो। वे जीवित जाग्रत क्रान्तिकारी थे। उनकी वाणी से सतत आग बरसती थी। उनकी लेखनी सचमुच मशाल ही थी। उनके भाषण का विषय साहित्य, धर्म, संस्कृति हो या कुछ और; पर न जाने कहाँ से भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल और सुभाष वहाँ आ जाते थे; फिर उसके बाद वे कितनी देर बोलते रहेंगे, कहना कठिन था।
24 जनवरी, 1914 को संडीला (जिला हरदोई, उत्तर प्रदेश) में श्री महावीर प्रसाद त्रिपाठी के घर में जन्मे वचनेश जी का असली नाम पुष्करनाथ था। सामान्य परिवार के होने के कारण उनकी शिक्षा कक्षा बारह से आगे नहीं हो पायी; पर व्यावहारिक ज्ञान के वे अथाह समुद्र थे।
उन्होंने कई जगह काम किया; पर उग्र स्वभाव और खरी बात के धनी होने के कारण कहीं टिके नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी जब संघ के विस्तारक होकर संडीला भेजे गये, तो वे वचनेश जी के घर पर ही रहते थे। लखनऊ से जब मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य और दैनिक स्वदेश का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, तो इन सबका काम अटल जी पर ही था। उन्होंने वचनेश जी की लेखन प्रतिभा को पहचान कर उन्हें लखनऊ बुला लिया।
1960 में वे तरुण भारत के सम्पादक बने। 1967 से 73 तथा 1975 से 84 तक वे राष्ट्रधर्म के तथा 1973 से 75 तक पांचजन्य के सम्पादक रहे। क्रान्तिकारी इतिहास में अत्यधिक रुचि के कारण वे जिस भी पत्र में रहे, उसके कई ‘क्रान्ति विशेषांक’ निकाले, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुए।
वचनेश जी ने अनेक पुस्तकें लिखीं। कहानी, कविता, संस्मरण, उपन्यास, इतिहास, निबन्ध, वैचारिक लेख..; अर्थात लेखन की सभी विधाओं में उन्होंने प्रचुर कार्य किया। पत्रकारिता एवं साहित्य में उनके इस योगदान के लिए राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन् ने 2001 ई0 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।
वचनेश जी का क्रान्तिकारियों से अच्छा सम्पर्क था। जयदेव कपूर, शिव वर्मा, काशीराम, देवनारायण भारती, नलिनीकिशोर गुह, मन्मथनाथ गुप्त, पंडित परमानन्द, रमेश चन्द्र गुप्ता, रामदुलारे त्रिवेदी, भगवानदास माहौर, वैशम्पायन, भगतसिंह के भाई कुलतार और भतीजी वीरेन्द्र सन्धू, शचीन्द्रनाथ बख्शी, रामकृष्ण खत्री, सुरेन्द्र पांडे, यशपाल आदि से उनकी बहुत मित्रता थी।
वचनेश जी ने स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों के योगदान को लिपिबद्ध करा कर उसे राष्ट्रधर्म, पांचजन्य आदि में प्रकाशित किया। देवनारायण भारती ने उन्हें छद्म नाम ‘बदनेश’ दिया, जो आगे चलकर वचनेश हो गया। वचनेश जी जब क्रान्तिकारी इतिहास पर बोलते थे, तो उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता था; क्योंकि अधिकांश तथ्य उन्होंने स्वयं जाकर एकत्र किये थे। 1984 में सम्पादन कार्य से अवकाश लेने के बाद भी उनकी लेखनी चलती रही। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म आदि में उनके लेख सदा प्रकाशित होते रहे।
92 वर्ष के सक्रिय जीवन के बाद 30 नवम्बर, 2006 को लखनऊ में उनका देहान्त हुआ। कविवर रामकृष्ण श्रीवास्तव की निम्न पंक्तियां वचनेश जी पर बिल्कुल सही उतरती हैं।
जो कलम सरीखे टूट गये पर झुके नहीं
यह दुनिया उनके आगे शीश झुकाती है।
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी
वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है!!