के सी शर्मा*
यदि किसी व्यक्ति का कोई अंग जन्म से न हो, या किसी दुर्घटना में वह अपंग हो जाए, तो उसकी पीड़ा समझना बहुत कठिन है। अपने आसपास हँसते-खेलते, दौड़ते-भागते लोगों को देखकर उसका मन में भी यह सब करने की उमंग उठती है; पर शारीरिक विकलांगता के कारण वह यह कर नहीं सकता।
पैर से विकलांग हुए ऐसे लोगों के जीवन में आशा की तेजस्वी किरण बन कर आये डा. प्रमोद करण सेठी, जिन्होंने ‘जयपुर फुट’ का निर्माण कर हजारों विकलांगों को चलने योग्य बनाया तथा वैश्विक ख्याति प्राप्त की।
डा. सेठी का जन्म 28 नवम्बर, 1927 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक थे। अतः पढ़ने-लिखने का वातावरण उन्हें बचपन से ही मिला। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्णकर उन्होंने सरोजिनी नायडू चिकित्सा महाविद्यालय, आगरा से 1949 में चिकित्सा स्नातक और फिर 1952 में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की।
यों तो एक चिकित्सक के लिए यह डिग्रियाँ बहुत होती हैं; पर डा. सेठी की शिक्षा की भूख समाप्त नहीं हुई। उनकी रुचि शल्य चिकित्सा में थी, अतः उन्होंने विदेश का रुख किया और एडिनबर्ग के रॉयल मैडिकल कॉलिज ऑफ सर्जन्स में प्रवेश ले लिया। 1954 में यहाँ से एफ.आर.सी.एस. की उपाधि लेकर वे भारत लौटे और राजस्थान में जयपुर के सवाई मानसिंह चिकित्सा महाविद्यालय में शल्य क्रिया विभाग में प्राध्यापक बन गये।
1982 तक डा. सेठी इसी महाविद्यालय में काम करते रहे। इसके साथ ही उन्होंने सन्तोखबा दुरलाभजी स्मृति चिकित्सालय में अस्थियों पर विस्तृत शोध किया। इससे दूर-दूर तक उनकी ख्याति एक अस्थि विशेषज्ञ के रूप में हो गयी। जब डा. सेठी किसी पैर से अपंग व्यक्ति को देखते थे, तो उनके मन में बड़ी पीड़ा होती थी। अतः वे ऐसे कृत्रिम पैर के निर्माण में जुट गये, जिससे अपंग व्यक्ति भी स्वाभाविक रूप से चल सके।
धीरे-धीरे उनकी साधना रंग लाई और वे ऐसे पैर के निर्माण में सफल हो गये। उन्होंने इसेे ‘जयपुर फुट’ नाम दिया। कुछ ही समय में पूरी दुनिया में यह पैर और इसके निर्माता डा. सेठी का नाम विख्यात हो गया। इससे पूर्व लकड़ी की टाँग का प्रचलन था। इससे व्यक्ति पैर को मोड़ नहीं सकता था; पर जयपुर फुट में रबड़ का ऐसा घुटना भी बनाया गया, जिससे पैर मुड़ सकता था। थोड़े अभ्यास के बाद व्यक्ति इससे स्वाभाविक रूप से चलने लगता था और देखने वाले को उसकी विकलांगता का पता ही नहीं लगता था। इससे उसके आत्मविश्वास में बहुत वृद्धि होती थी।
जयपुर फुट का प्रयोग दुनिया के कई प्रमुख लोगों ने किया। इनमें भारत की प्रसिद्ध नृत्यांगना सुधा चन्द्रन भी है। एक फिल्म निर्माता ने उसकी अपंगता और फिर से कुशल नर्तकी बनने की कहानी को फिल्म ‘नाचे मयूरी’ के माध्यम से पर्दे पर उतारा। इससे डा. सेठी का नाम घर-घर में पहचाना जाने लगा।
इसके बाद भी उन्होंने विश्राम नहीं लिया। वे विकालांगों के जीवन को और सुविधाजनक बनाने के लिए इसमें संशोधन करते रहे। डा0 सेठी की इन उपलब्धियों के कारण उन्हें डा. बी.सी.राय पुरस्कार, रेमन मैगसेसे पुरस्कार, गिनीज पुरस्कार आदि अनेक विश्वविख्यात सम्मानों से अलंकृत किया गया।
लाखों विकलांगों के जीवन में नया उजाला भरने वाले डा. प्रमोद करण सेठी का निधन 6 जनवरी, 2008 को हुआ।