वकालत के व्यवसाय में तर्क का बड़ा महत्व हैै। सफल वकील वही है, जो अपनी बात को अधिक तर्कपूर्ण ढंग से रख सके। बाबू सियाराम सक्सेना ऐसे ही एक सफल वकील थे; पर अपनी तर्कशक्ति का उपयोग वे उतनी ही प्रबलता से संघ कार्य के लिए भी करते थे। अतः संघ के विरोधी उनके सामने आने से घबराते थे।
बाबू जी का जन्म 28 अक्तूबर, 1910 को बदायूं (उ.प्र.) के सहसवान कस्बे में श्री दुर्गाप्रसाद जी के घर में हुआ था। यह परिवार इसी जिले के दरयापुर गांव का निवासी था। वहां उनकी बड़ी जमींदारी थी। उन्होंने आगरा वि.वि. से स्वर्ण पदक लेकर बी.एस-सी. और फिर कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर वकालत को व्यवसाय के रूप में अपनाया।
थोड़े ही समय में उनकी ख्याति एक श्रेष्ठ वकील के रूप में हो गयी। उनकी रुचि आर्य समाज, हिन्दू महासभा, कांग्रेस तथा संघ जैसे सभी सामाजिक कार्याें में थी। अपने मकान के मुहूर्त पर उन्होंने भगवा ध्वज लगाकर सामूहिक प्रार्थना की। इस पर कुछ कांग्रेसियों ने आपत्ति की। यह देखकर बाबूजी ने कांग्रेस को ही छोड़ दिया। 1948 के प्रतिबन्ध काल में वे वकालत की चिन्ता न कर जेल गये और वहां से आकर संघ में ही पूरी तरह रम गये।
बाबूजी शिक्षा के बहुत प्रेमी थे। वे न्यायालय से लौटकर मोहल्ले के बच्चों को निःशुल्क गणित, अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ाते थे। उन्होंने अपनी पत्नी को भी आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। पढ़ाई पूरी कर वे एक कन्या विद्यालय में अध्यापक और फिर प्रधानाचार्य बनीं। वे बहुत समय तक बदायूं के जिला संघचालक तथा जिला वकील संघ के अध्यक्ष रहे।
1975 में भी संघ पर प्रतिबन्ध के विरोध में उन्होंने जेल यात्रा की। उनकी रुचि जमींदारी में नहीं थी। अतः उन्होंने अपने हिस्से की सारी भूमि गांव के निर्धन भूमिहीनों में बांट दीं। इसलिए गांव के लोग उन्हें अपने परिवार का मुखिया मानते थे और उनके पास आकर अपने दुख-सुख बताया करते थे।
बाबूजी ने अपने पुत्र के विवाह के बाद वानप्रस्थ ले लिया। अपनी सब सम्पत्ति बेचकर वे आगरा के प्रांतीय संघ कार्यालय, माधव भवन में आ गये। उनके घर का कीमती फर्नीचर आज भी वहां प्रयोग हो रहा है। इसके बाद उन्हें पश्चिमी उ.प्र. के बौद्धिक प्रमुख का दायित्व दिया गया। वयोवृद्ध होने के बाद भी वे जिला प्रचारक के साथ मोटर साइकिल पर कष्टपूर्ण प्रवास करते थे। यदि कोई इसकी चर्चा करता, तो वे कहते कि वानप्रस्थ आश्रम समाज की सेवा के लिए है, शरीर के आराम के लिए नहीं।
1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन के कारण देश का वातावरण बहुत खराब हो गया था। ऐसे में बाबूजी साहसपूर्वक सिक्खों की बैठकें लेते थे। उनकी तार्किक बातों के आगे उग्रवादी विचारों के सिक्ख भी कुछ बोल नहीं पाते थे। उन्हें बच्चों को कहानी सुनाने में भी उतना ही रस आता था, जितना बुजुर्गों को देश और धर्म की बात बताने में। गांव में प्रवास में वे गांव की परिक्रमा कर फिर सबको मंदिर में एकत्र करते थे। उनका आग्रह था कि सायंकाल की आरती के समय हर घर से कम से कम एक व्यक्ति मंदिर में अवश्य आए। वे आरती में सबको पंक्तिबद्ध होकर खड़े होने को कहते थे।
बाबू सियाराम जी प्रचारक तथा विस्तारकों से भी अपनी शिक्षा पूरी करने को कहते थे। आगरा के प्रांतीय कार्यालय पर रहने वाले छात्रों को वे पढ़ाते भी थे। इसके लिए उन्होंने इतिहास, राजनीति शास्त्र, वाणिज्य आदि विषयों का स्वयं अध्ययन किया। जब उनका शरीर बहुत जर्जर और रोगग्रस्त हो गया, तो उनके एकमात्र पुत्र ने आग्रहपूर्वक उन्हें अपने पास बड़ोदा बुला लिया। वहीं 18 मई, 1994 को उनका देहांत हुआ।
के सी शर्मा