फिल्में भी एक पाठशाला ही होती हैं। कई बातें जो स्कूल में नहीं सिखाई जातीं वे फिल्मों से मिल जाती हैं। आदमी जो दिखता है दरअसल वह वैसा होता नहीं। यह सीख फिल्मों के चरित्र से ही मिली। फिल्में समाज से ही चरित्र उठाती हैं। हम जिसका अनुमान लगाते हैं या महसूस करते हैं फिल्में उसे दिखा देती हैं। वे दमित आकांक्षाओं को परदे पर पूरा करने व कल्पनाओं में पंख साजने का काम करती हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय जिस खूबसूरत तरीके से तीन घंटे में फिल्में दिखा देती हैं, उसी बात को प्रवचनकर्ता घुमावदार तरीके से सात दिनों में बता पाते हैं। हर फिल्म में कुछ न कुछ अपने काम का ह़ोता है। अपना उसी से मतलब रहा करता है। मनोहर श्याम जोशी ने ..पटकथा लेखन..नाम की अपनी किताब में लिखा है कि..हर फिल्म या तो रामायण से या फिर महाभारत से प्रभावित होती है। दुनिया में जो है वह महाभारत में है और जो इसमें नहीं है समझो कहीं नहीं है, यह उद्घोष महाभारत के रचनाकार महर्षि व्यास का है।
फिल्मों में हीरो से ज्यादा खलनायक को लेकर जिग्यासा होती है। हम लोग फिल्म देखने का पैमाना खलनायक की खूंखारियत से तय करते थे। फिल्म में कितना बड़ा हीरो ले लो खलनायक दमदार न हुआ तो सब बेकार। हीरो की महत्ता खलनायक से है। कल्पना करिए यदि रावण या कंस नहीं होता तो राम,कृष्ण को कौन जानता। रामायण, महाभारत जैसे अद्वितीय ग्रंथ नहीं पढने को मिलते। महिषासुर, मधुकैटभ नहीं होते तो दुर्गा मां की जो प्रतिष्ठा है, क्या होती। जैसे दिन रात बराबर है वैसे ही अच्छाई और बुराई भी।
सृष्टि रचते समय ब्रह्मा ने हर चीज का विलोम भी रचा। इसीलिए देवता हुए तो ब्रह्मा को दैत्य भी बनाने पड़े। वैसे देवता और दैत्य एक पिता की ही संतान हैं, माताएं अलग-अलग। दिति के बेटे दैत्य हुए तो अदिति के देवता। इस नाते ये दोनों भाई-भाई हुए। इस दृष्टि से देखें तो रूपरंग कद काठी एक जैसे होनी चाहिए क्योंकि दोनों में कश्यपजी का ही गुणसूत्र है। हमारी कल्पना में राक्षस की जो आकृति उभरती है दरअसल वह वास्तविक नहीं होती। वह कलाकारों की कल्पित छवि है,जो कथाओं में वर्णित राक्षसों की प्रवृत्ति दर्शाती है।
जैसे रावण को ही ले लीजिए। हर चित्र में उसे दस सिरों वाला बताते हैं। ये चित्र प्रतीकात्मक है। वह दसों द्वारपालों को बंधक बनाए रखता है। सभी ग्रह नक्षत्र उसके बंदी होते हैं। एक साथ वह दस तरह की बातें सोचता है। कब क्या हो जाए, किसका रूप धर ले यह उसमें पारंगत था। पल में साधु, पल में राक्षस, पल में राजा, पल में विद्वान पंडित। रावण सीधे ब्रह्मा जी का पोता था। सप्तर्षियों में से एक पुलस्त्य का नाती। वह जन्मना राक्षस नहीं था। उसकी वृत्ति व प्रवृति ने उसे राक्षस बना दिया बावजूद इसके रावण के चरित्र से यह बात सीखने की ज़रूरत है कि किसी पर स्त्री का अपहरण करने के बावजूद उसका सम्मान कैसे किया जाता है । रावण ने सीता का हरण करने के बावजूद अशोक वाटिका में सम्मानपूर्वक रखा सीता के सतीत्व मे आँच भी नहीं आने दिया वरना आज के युग में हम इंसानों के बीच मौजूद रावण अबोध बालिकाओं को भी नहीं छोड़ते ये या रावण के बीच व्याप्त अच्छाई और इंसानों के बीच व्याप्त बुराई का सूचक है
जन्मना न कोई देवता होता है न राक्षस। सब एक से होते हैं। उनके गुण व चरित्र उन्हें देवता या राक्षस बनाते हैं। जन्म से ही कोई देवता बनता तो वो जयन्त भी देवता होता, जिसने सीता जी के पैरों में चोंच मारा था। वह देवराज इंद्र का बेटा था। पुराण कथाओं में कई ऐसे उदाहरण हैं कि राक्षस के घर पैदा हुआ पर देवता निकल गया। प्रहलाद, विरोचन, बलि ये तीनों हिरण्यकशिपु के वंशज हैं पर आचरण और गुण से देवताओं से भी बढकर। बलिदान कितना महान शब्द है। यह राजा बलि से आया, जो उन्होंने ने वामनरूप भगवान् को अपना दान दे दिया। तन, मन, धन अर्पित करना ही बलिदान है। तो राक्षस कोई अलग प्रजाति नहीं। यह गुणानुवर्ती है।
हर व्यक्ति राक्षस और देवता दोनों है। जो वृत्ति उभरती है वह वही बन जाता है। विवेकानंद जी कहते हैं - हर मनुष्य में सभी गुण उसी तरह विद्यमान रहते हैं जैसे कि दिखने वाले रंग में शेष सभी रंग। यदि हमें लाल दिखता है तो शेष सभी छः रंग उसमें छिपे होते हैं। अनुकूलतावश एक रंग प्रदीप्त होता है। वैसे ही मनुष्य में सभी गुण बराबर अनपात में होते हैं। जो प्रदीप्त होता है उसी के आधार पर हम उसे देवता, राक्षस,चोर,डाकू,निर्दयी, दयावान,वैज्ञानिक,आतंकवादी आदि आदि की संग्या देते हैं। यानी राक्षस कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर है। सभी प्रवृत्तियां बाहर आने के मौके तलाशती रहती हैं। आपने दरवाजा खोला, वे बाहर आईं। इसीलिये शरीर के रंगमहल में दस दरवाजे बताए गए हैं इनपर मालिकाना हक बनाए रखने के लिए ही जप,तप नियम,संयम बताए गए हैं। इन त्योहारों और देवी, देवताओं के पीछे गूढ़ार्थ हैं। इन्हें समझेंगे तभी सुफल मिलेगा। खाली उपवास रखने और भजनकीर्तन से कुछ हांसिल नहीं होने वाला।
माता भगवती हमारे चित्त और वृत्ति की अधिष्ठात्री हैं। इसलिए.. या देवी सर्वभूतेषु ....विभिन्न वृत्ति रूपेण संसिथा ..हैं। इनकी आराधना हमारे भीतर छुपे हुए राक्षस का नाश करती हैं। पर नाश तभी कर पाएंगी जब एक एक कर्मकाण्ड के मर्म को समझेंगे। विविध कलारूप हमें मनुष्य की वृत्तियों और उसके भीतर छिपे हुए चरित्रों को समझने में मदद करती हैं, बशर्ते उस नजरिए से देखें। हर कला व साहित्य में समझने के लिए कुछ न कुछ है। हर पर्व में अपने जीवन का दर्शन दुरुस्त करने की सीख है। दैव और दैत्यवृत्ति सर्वव्यापी है। हमारे चित्त और वृत्ति की अधिष्ठात्री माता भगवती का महात्म्य यही है कि वे दैत्यवृत्ति की नाशिनी हैं। आइये विजयादशमी में हम कुछ इसी तरह की आराधना कर लें और अपने अंदर मौजूद रावण रूपी बुराई का दरवाजा सदैव के लिये बंद कर पहले स्वयं के अंदर मौजूद रावण रूपी बुराई का दहन कर लें
फिल्मों में हीरो से ज्यादा खलनायक को लेकर जिग्यासा होती है। हम लोग फिल्म देखने का पैमाना खलनायक की खूंखारियत से तय करते थे। फिल्म में कितना बड़ा हीरो ले लो खलनायक दमदार न हुआ तो सब बेकार। हीरो की महत्ता खलनायक से है। कल्पना करिए यदि रावण या कंस नहीं होता तो राम,कृष्ण को कौन जानता। रामायण, महाभारत जैसे अद्वितीय ग्रंथ नहीं पढने को मिलते। महिषासुर, मधुकैटभ नहीं होते तो दुर्गा मां की जो प्रतिष्ठा है, क्या होती। जैसे दिन रात बराबर है वैसे ही अच्छाई और बुराई भी।
सृष्टि रचते समय ब्रह्मा ने हर चीज का विलोम भी रचा। इसीलिए देवता हुए तो ब्रह्मा को दैत्य भी बनाने पड़े। वैसे देवता और दैत्य एक पिता की ही संतान हैं, माताएं अलग-अलग। दिति के बेटे दैत्य हुए तो अदिति के देवता। इस नाते ये दोनों भाई-भाई हुए। इस दृष्टि से देखें तो रूपरंग कद काठी एक जैसे होनी चाहिए क्योंकि दोनों में कश्यपजी का ही गुणसूत्र है। हमारी कल्पना में राक्षस की जो आकृति उभरती है दरअसल वह वास्तविक नहीं होती। वह कलाकारों की कल्पित छवि है,जो कथाओं में वर्णित राक्षसों की प्रवृत्ति दर्शाती है।
जैसे रावण को ही ले लीजिए। हर चित्र में उसे दस सिरों वाला बताते हैं। ये चित्र प्रतीकात्मक है। वह दसों द्वारपालों को बंधक बनाए रखता है। सभी ग्रह नक्षत्र उसके बंदी होते हैं। एक साथ वह दस तरह की बातें सोचता है। कब क्या हो जाए, किसका रूप धर ले यह उसमें पारंगत था। पल में साधु, पल में राक्षस, पल में राजा, पल में विद्वान पंडित। रावण सीधे ब्रह्मा जी का पोता था। सप्तर्षियों में से एक पुलस्त्य का नाती। वह जन्मना राक्षस नहीं था। उसकी वृत्ति व प्रवृति ने उसे राक्षस बना दिया बावजूद इसके रावण के चरित्र से यह बात सीखने की ज़रूरत है कि किसी पर स्त्री का अपहरण करने के बावजूद उसका सम्मान कैसे किया जाता है । रावण ने सीता का हरण करने के बावजूद अशोक वाटिका में सम्मानपूर्वक रखा सीता के सतीत्व मे आँच भी नहीं आने दिया वरना आज के युग में हम इंसानों के बीच मौजूद रावण अबोध बालिकाओं को भी नहीं छोड़ते ये या रावण के बीच व्याप्त अच्छाई और इंसानों के बीच व्याप्त बुराई का सूचक है
जन्मना न कोई देवता होता है न राक्षस। सब एक से होते हैं। उनके गुण व चरित्र उन्हें देवता या राक्षस बनाते हैं। जन्म से ही कोई देवता बनता तो वो जयन्त भी देवता होता, जिसने सीता जी के पैरों में चोंच मारा था। वह देवराज इंद्र का बेटा था। पुराण कथाओं में कई ऐसे उदाहरण हैं कि राक्षस के घर पैदा हुआ पर देवता निकल गया। प्रहलाद, विरोचन, बलि ये तीनों हिरण्यकशिपु के वंशज हैं पर आचरण और गुण से देवताओं से भी बढकर। बलिदान कितना महान शब्द है। यह राजा बलि से आया, जो उन्होंने ने वामनरूप भगवान् को अपना दान दे दिया। तन, मन, धन अर्पित करना ही बलिदान है। तो राक्षस कोई अलग प्रजाति नहीं। यह गुणानुवर्ती है।
हर व्यक्ति राक्षस और देवता दोनों है। जो वृत्ति उभरती है वह वही बन जाता है। विवेकानंद जी कहते हैं - हर मनुष्य में सभी गुण उसी तरह विद्यमान रहते हैं जैसे कि दिखने वाले रंग में शेष सभी रंग। यदि हमें लाल दिखता है तो शेष सभी छः रंग उसमें छिपे होते हैं। अनुकूलतावश एक रंग प्रदीप्त होता है। वैसे ही मनुष्य में सभी गुण बराबर अनपात में होते हैं। जो प्रदीप्त होता है उसी के आधार पर हम उसे देवता, राक्षस,चोर,डाकू,निर्दयी, दयावान,वैज्ञानिक,आतंकवादी आदि आदि की संग्या देते हैं। यानी राक्षस कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर है। सभी प्रवृत्तियां बाहर आने के मौके तलाशती रहती हैं। आपने दरवाजा खोला, वे बाहर आईं। इसीलिये शरीर के रंगमहल में दस दरवाजे बताए गए हैं इनपर मालिकाना हक बनाए रखने के लिए ही जप,तप नियम,संयम बताए गए हैं। इन त्योहारों और देवी, देवताओं के पीछे गूढ़ार्थ हैं। इन्हें समझेंगे तभी सुफल मिलेगा। खाली उपवास रखने और भजनकीर्तन से कुछ हांसिल नहीं होने वाला।
माता भगवती हमारे चित्त और वृत्ति की अधिष्ठात्री हैं। इसलिए.. या देवी सर्वभूतेषु ....विभिन्न वृत्ति रूपेण संसिथा ..हैं। इनकी आराधना हमारे भीतर छुपे हुए राक्षस का नाश करती हैं। पर नाश तभी कर पाएंगी जब एक एक कर्मकाण्ड के मर्म को समझेंगे। विविध कलारूप हमें मनुष्य की वृत्तियों और उसके भीतर छिपे हुए चरित्रों को समझने में मदद करती हैं, बशर्ते उस नजरिए से देखें। हर कला व साहित्य में समझने के लिए कुछ न कुछ है। हर पर्व में अपने जीवन का दर्शन दुरुस्त करने की सीख है। दैव और दैत्यवृत्ति सर्वव्यापी है। हमारे चित्त और वृत्ति की अधिष्ठात्री माता भगवती का महात्म्य यही है कि वे दैत्यवृत्ति की नाशिनी हैं। आइये विजयादशमी में हम कुछ इसी तरह की आराधना कर लें और अपने अंदर मौजूद रावण रूपी बुराई का दरवाजा सदैव के लिये बंद कर पहले स्वयं के अंदर मौजूद रावण रूपी बुराई का दहन कर लें