गांधी की हत्या: छठीं बार में मिली सफलता
30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या से पहले उनकी हत्या की पांच और कोशिशें की गई थी.
30 जनवरी 1948 को जो हुआ वह तो महात्मा गांधी की हत्या के कायर नाटक का छठा अध्याय था. उससे पहले सावरकर-मार्का हिंदुत्ववादियों ने पांच बार महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास किए और हर बार विफल हुए. हम उन घटनाओं में उतरें तो यह भी पता चलेगा कि इनमें से किसी भी प्रयास के बाद हमें गांधीजी की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती है. मृत्यु और उसके भय की तरफ मानो उन्होंने अपनी पीठ कर दी थी.
गांधीजी की जान लेने की जितनी कोशिशें दक्षिण अफ्रीका में हुई– हमें ध्यान रखना चाहिए कि वहा हिंदु-मुसलमान का याकि सुहरावर्दी का याकी 55 करोड़ का कोई मासला नहीं था- उनमें से कुछ का जिक्र पिछले पन्नों में आपने जेम्म डगलस की जबानी पढ़ा डरबन से प्रीटोरिया जाते हुए ट्रेन से उतार फेंकने की घटना हो या चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की घोड़ागाडी की यात्रा में हुई बेरहम पिटाई का वाकया, दोनों में उनका अपमान-भर हुआ ऐसा नहीं था बल्कि दोनों ही प्रकरणों में उनका अंग भंग भी हो सकता था, जान भी जा सकती थी. चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की यात्रा के बारे में उन्होंने आत्मकथा में लिखा है कि ‘‘मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैं अब अपनी जगह पर जिंदा नहीं पहुंचूंगा.’’ लेकिन वे अपनी जगह पर जिंदा पहुंचे और इन सब घटनाओं के बीच ही कभी, कहीं उन्हें उस कीड़े ने काटा जिसने उनकी जिंदगी का रगं व ढंग, दोनों बदल दिया.
जानकारी के अभाव में या किसी आंतरिक कालिमा के प्रभाव में कुछ लोगों को लगता है कि गांधीजी की अहिंसा की बात एकदम कागजी थी, क्योंकि उन्होंने क्रूर हिंसा का या मौत का सीधा सामना तो कभी किया ही नहीं! ऐसे लोंगो को भी और हम सबको भी जानना चाहिए कि किसी को मारने की कोशिश में अपनी मौत का आ जाना और खुद आगे बढ़कर मौत का सामना करना, दो एकदम भिन्न बातें है. पहली कोटि में गांधीजी कहीं मिलते नहीं हैं, दूसरी कोटी में झांकने का भी साहस हममें है नहीं| इसलिए हमें इतिहास का सहारा लेना पड़ता है.
गांधीजी की संघर्ष-शैली ऐसी थी कि जिसमें हिंसा या हमला था ही नहीं, इसलिए जीत या हार भी नहीं थी. वे वैसा रास्ता खोज रहे थे जिसमें लड़ाई तो हो, कठोर व दुर्धर्ष हो लेकिन उससे सामने वाला खत्म न हो, साथ आ जाए. वे अपने-से असहमत लोगों को साथ लेकर अपनी फौज खड़ी करने में जुटे थे- फिर चाहे वे जनरल स्मट्स हों कि रानी एलिजाबेथ कि रवींद्रनाथ ठाकुर कि आंबेडकर कि जिन्ना कि जवाहरलाल नेहरू. हमें सदियों से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिखाया तो यही गया है न कि दुश्मन से न समझौता, न दोस्ती! लेकिन यहां भाई गांधी ऐसे हैं कि जो किसी को आपना दुश्मन मानते ही नहीं हैं. तुमुल संघर्ष के बीच भी उनकी सावधान कोशिश रहती थी कि सामने वाले को ज्यादा संवेदनशील बनाकर कैसे अपने साथ ले लिया जाए.
वह प्रसंग याद करने लायक है. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान लंदन के बिशप गांधीजी से मिले. मुलाकात के दौरान गांधीजी का चरखा कातना चलता ही रहता था. उस दिन भी वैसा ही था. बिशप चाहते होंगे कि गांधीजी सारा काम छोड़ कर कर उनसे ही बात करें. इसलिए पहुंचते-ही-पहुंचते बिशप ने अपना दार्शनिक तीर चलाया, मिस्टर गांधी, प्रभु जीसस ने कहा है कि अपने दुश्मन को भी प्यार करो, अपका इस बारे में क्या कहना है? गांधीजी की चरखे में निमग्नता नहीं टूटी. जवाब भी नहीं आया और सूत भी नहीं रुका. तो बिशप को लगा कि शायद मेरा सवाल सुना नहीं! सो फिर थोड़ी ऊंची आवाज में अपना सवाल दोहराया. अब गांधीजी का हाथ भी रुका, सूत भी और वे बोले, ‘‘आपका सवाल तो मैंने पहली बार में ही सुन लिया था. सोचने में लगा था कि मैं इस बारे में क्या कहूं, मेरा तो कोई दुश्मन ही नहीं है.. बिशप अवाक् उस आदमी को देखते रह गए, जो फिर से चरखा कातने में निमग्न हो चुका था.…..लेकिन जो किसी को अपना दुश्मन नहीं मानता है उसे इसी कारण दुश्मन मानने वाले तो होते ही हैं.
1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका छोड़ कर, फिर वापस न जाने के लिए भारत आ गए. उस दिन से 30 जनवरी 1948 को मारे जाने के बीच, उनकी सुनियोजित हत्या की पांच कोशिशें हुईं.
पहली कोशिश (1934)
तब पुणे हिंदुत्व का गढ़ माना जाता था. पुणे की नगरपालिका ने महात्मा गांधी का सम्मान समारोह आयोजित किया था और उस समारोह में जाते वक्त उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया. नगरपालिका के मुख्य अधिकारी और पुलिस के दो जवानों सहित सात लोग गंभीर रूप से घायल हुए. हत्या की यह कोशिश विफल इसलिए हुई कि जिस गाड़ी पर यह मान कर बम डाला गया कि इसमें गांधीजी हैं, दरअसल गांधीजी उसमें नहीं, उसके पीछे वाली गाड़ी में थे. चूक हत्या की योजना बनाने वालों से ही नहीं हुई, उनसे भी हुई जिन्हें इस षडयंत्र का पर्दाफाश करना था. मामला वहीं-का-वहीं दबा दिया गया.
दूसरी कोशिश ( 1944 )
आगाखान महल की लंबी कैद में अपने पुत्रवत् महादेव देसाई व अपनी बा को खो कर गांधीजी जब रिहा किए गए तो वे बीमार भी थे और बेहद कमजोर भी. इसलिए तय हुआ कि बापू को अभी तुरंत राजनीतिक गहमागहमी में न डाल कर, कहीं शांत-एकांत में आराम के लिए ले जाया जाए. इसलिए उन्हें पुणे के निकट पंचगनी ले जाया गया. पुणे के नजदीक बीमार गाँधी का ठहरना हिन्दुत्ववादियों के अपने शौर्य प्रदर्शन का अवसर लगा और वहां पहुंचकर वे लगातार नारेबाजी, प्रदर्शन करने लगे. फिर 22 जुलाई को ऐसा भी हुआ कि एक युवक मौका देखकर गांधीजी की तरफ छुरा लेकर झपटा. लेकिन भिसारे गुरूजी ने उस युवक को दबोच लिया और उसके हाथ से छुरा छीन लिया. गांधीजी ने उस युवा को छोड़ देने का निर्देश देते हुए कहा कि उसको कहो कि वह मेरे पास आकर कुछ दिन रहे ताकि मैं जान सकूं कि उसे मुझसे शिकायत क्या है. वह युवक इसके लिए तैयार नहीं हुआ. उस युवक का नाम नाथूराम गोडसे था.
तीसरी कोशिश ( 1944)
1944 में ही तीसरी कोशिश की गई ताकि पंचगमी की विफलता को सफलता में बदला जा सके. इस बार स्थान था वर्धा स्थित गांधीजी का सेवाग्राम आश्रम. पंचगनी से निकलर गांधीजी फिर से अपने काम में डूब गए थे. विभाजन की बातें हवा में थीं और मुहम्मद अली जिन्ना उसे सांप्रदायिक रंग देने में जुटे थे. सांप्रदायिक हिन्दू भी मामले को और बिगाड़ने में लगे थे. गांधीजी इस पूरे सवाल पर मुहम्मद अली जिन्ना से सीधे बातचीत की योजना बना रहे थे और यह तय हुआ कि गांधीजी मुंबई जाकर जिन्ना से मिलेंगे.
गांधीजी के मुंबई जाने की तैयारियां चल रही थीं कि तभी सावरकर-टोली ने घोषणा कर दी कि वे किसी भी सूरत में गांधीजी को जिन्ना से बात करने मुंबई नहीं जाने देंगे. पुणे से उनकी एक टोली वर्धा आ पहुंचीं और उसने सेवाग्राम आश्रम को घेर लिया. वे वहां से नारेबाजी करते, आने-जाने वालों को परेशान करते और गांधीजी पर हमला का मौका खोजते रहते. पुलिस का पहरा था. गांधीजी ने बता दिया कि वे नियत समय पर मुंबई जाने के के लिए आश्रम से निकलेंगे और विरोध करने वाली टोली के साथ तब तक पैदल चलते रहेंगे जब तक वे उन्हें मोटर में बैठने की इजाजत नहीं देते. गांधीजी की योजना जानकर पुलिस सावधान हो गई. ये उपद्रवी तो चाहते ही है कि गांधीजी कभी उनकी भीड़ में घिर जाएं. पुलिस के पास ख़ुफ़िया जानकारी थी कि ये लोग कुछ अप्रिय करने की तैयारी में है. इसीलिए उसने ही कदम बढ़ाया और उपद्रवी टोली को गिरफ्तार कर लिया. सबकी तलाशी ली गई तो इस टोली के सदस्य ग.ल थत्ते के पास एक बड़ा सा छुरा बरामद हुआ. युवाओं का वर्धा पहुंचना, उनके साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माताओं में से एक माधवराव सदाशिव गोलवलकर का अचानक वर्धा आगमन और यह छुरा- सब मिलाकर एक ही कहानी कहते हैं- जिस तरह भी हो, गांधी का खात्मा करो.
चौथी कोशिश ( 1946 )
पंचगनी और वर्धा के विफलता से परेशान होकर इन लोगों ने तय किया कि गांधीजी को मारने के क्रम में कुछ दूसरे भी मरते हों तो मरें. इसीलिए 30 जून को उस रेलगाड़ी को पलटने की कोशिश हुई जिससे गांधीजी मुंबई से पुणे जा रहे थे. करजत स्टेशन के पास पहुंचते-पहुंचते राह गहरी हो चली थी लेकिन सावधान ड्राईवर में देख लिया कि ट्रेन की पटरियों पर बड़े-बड़े पत्थर डाले गए हैं ताकि गाड़ी पलट जाए. इमर्जेंसी ब्रेक लगाकर ड्राईवर ने गाड़ी रोकी. जो नुकसान होना था वह इंजन को हुआ हुआ, गांधीजी बच गए. अपनी प्रार्थना सभा में गांधीजी ने इसका जिक्र करते हुए कहा, ‘‘ मैं सात बार मारने के ऐसे प्रयासों से बच गया हूं. मैं इस प्रकार मरने वाला नहीं हूं. मैं तो 125 साल जीने की आशा रखता हूं.’’ पुणे से निकलने वाले अख़बार ‘हिंदू राष्ट्’ के संपादक ने जवाब दिया, ‘‘ लेकिन आपको इतने साल जीने कौन देगा.’’
अख़बार के संपादक का नाम था- नाथूराम गोडसे
पांचवीं कोशिश ( 1948)
पर्दे के पीछे लगातार षड्यंत्रों और योजनाओं का दौर चलता रहा. सावरकर अब तक की अपनी हर कोशिश की विफलता से खिन्न भी थे और अधीर भी. लंदन में धींगरा जब हत्या की ऐसी ही एक कोशिश में विफल हुए थे तब भी सावरकर ने उन्हें चेतावनी दी थी, ‘‘ अगर इस बार विफल रहे तो फिर मुझे मुंह न दिखाना’’. हत्या सावरकर के तरकश का आखिरी नहीं, ज़रूरी हथियार था. इस कब और किसके लिए इस्तेमाल करना है यह फैसला हमेशा उनका ही होता था.
गांधीजी अपनी हत्या की इन कोशिशों का मतलब समझ रहे थे लेकिन वे लगातार एक-से-बड़े-दूसरे खतरे में उतरते भी जा रहे थे. उनके पास निजी खतरों का हिसाब लगाने का वक़्त नहीं था. और खतरों में उतरने के सिवा उनके पास विकल्प भी नहीं था. खतरों में वह सत्य छिपा था जिसकी उन्हें तलाश भर नहीं थी बल्कि जिसे उन्हें देश व् दुनिया को दिखाना भी था कि जान देने के साहस में से अहिंसा शक्ति भी पाती है और स्वीकृति भी. हत्यारों में इतनी हिम्मत थी ही नहीं कि वे भी उन खतरों में उतरकर गांधीजी का मुकाबला करते. इस लुका-छिपी में ही कुछ वक़्त निकल गया.
इस दौर में सांप्रदायिकता के दावानल में धधकते देश की रगों में क्षमा, शांति और विवेक का भाव भरते एकाकी गांधी कभी यहां, तो कभी वहां भागते मिलते हैं. पंजाब जाने के रास्ते में वे दिल्ली पहुंचें हैं और पाते है कि दिल्ली की हालत बेहद खराब है. अगर दिल्ली हाथ से गई तो आजाद देश की आज़ादी भी दांव पर लग सकती है. गांधीजी दिल्ली में ही रुकने का फैसला करते हैं- तब तक जब तक हालात काबू में नहीं आ जाते. इधर गांधीजी का फैसला हुआ, उधर सावरकर-टोली का फैसला भी हुआ. गांधीजी ने कहा- ‘मैं दिल्ली छोड़कर नहीं जाऊंगा.’ सावरकर टोली ने कहा- हम आपको दिल्ली से जिंदा वापस निकलने नहीं देंगे! स्थान गांधीजी का था –बिरला भवन और बम सावरकर-टोली का.
बिरला भवन में रोज की तरह उस रोज भी, 20 जनवरी की शाम को भी प्रार्थना थी. 13 से 19 जनवरी तक गांधीजी का आमरण उपवास चला था. उसकी पीड़ा ने प्रायश्चित जगाया और दिल्ली में चल रही अंधाधुंध हत्याओं व् लूट-पाट पर कुछ रोक लगी. सभी समाजों,धर्मों, सगठनों ने गांधीजी को वचन दिया कि वे दिल्ली का मन फिर नहीं बिगड़ने देंगे. ऐसा कहने वालों में सावरकर-टोली भी शामिल थी, जो उसी वक़्त हत्या की भी अपनी योजना पर भी काम कर रही थी. गांधीजी अपनी क्षीण आवाज़ में इन सारी बातों का जिक्र कर रहे थे कि मदनलाला पाहवा ने उनपर बम फेंका. बम फटा भी लेकिन निशाना चूक गया. जिस दीवार की आड़ से उसने बम फेंका था उससे, गांधीजी जहां बैठे थे, उसकी दूरी का उसका अंदाजा गलत निकला. गांधीजी फिर बच गए. बमबाज मदनलाल पहवा विभाजन का शरणार्थी था. वह पकड़ा भी गया लेकिन जिन्हें पकड़ना था, उन्हें तो किसी ने नहीं पकड़ा.
छठीं सफल कोशिश ( 30 जनवरी 1948)
दस दिन पहले मदनलाल पाहवा विफल हुआ था, दस दिन बाद वहीं नाथूराम गोडसे सफल हुआ. प्रार्थना-भाव में मग्न अपने राम की तरफ जाते गांधीजी के सीने में उसने तीन गोलियां उतार दी और ‘हे राम!’ कह गांधीजी वहां चले गए जहां से कोई वापस नहीं आता.
( गांधी-मार्ग से साभार )