बाते हो उतनी जितनी लोग सुने- के सी शर्मा





के सी शर्मा*


देश मे खुलकर दीपावली मनाई गई। देर रात तक पटाखे फूटते रहे। हिन्दू त्यौहारों का बहिष्कार करने वाले एक्टिविस्टों की भी दलीलें धरी की धरी रह गई।
 आपके आस पास जश्न मनाया जा रहा हो, तब आप अपने बच्चों को यह कहकर नहीं रोक सकते कि ये तो राम का त्यौहार है, बुद्ध का नहीं.... वगैरह वगैरह।
        समाज चलता है, धर्म से, ऑर्डर से नहीं। कानून से नहीं।

       पाखण्डी, दोगलापन और सुविधा के उपदेश देने वालों को समाज पहचान गया है।
उसने समझ लिया है कि नैतिकता की बातें करने वाले ज्यादातर लोग स्वयं अधार्मिक हैं, इन्हें इनकी औकात दिखानी ही चाहिए।
और परिणाम यह हुआ कि प्रतिक्रिया में जितना करना चाहिए उससे भी ज्यादा "कर दिया गया"।

जाहिर है, समाज की मुख्य धारा को पहचानने में ये सभी विफल हो गए हैं।
 एक छोटे से रूम में बैठकर विशाल देश को अपने तरीके से अनुशासित करने की जुगत अब नहीं चलने वाली।
यह इनकी बुद्धिजीविता नहीं, मानसिक दिवालियापन का प्रमाण है।

धरातल से बेखबर, ये लोग समय समय पर अपनी ही भद्द पिटवाने के हास्यास्पद आदेश जारी करते रहेंगे और पब्लिक इनको इनकी सही जगह दिखाती रहेगी।
समस्या के मूल में अंग्रेजों द्वारा स्थापित प्रशासन व्यवस्था की वह मानसिकता है जिसमें नौकरी करने वाले स्वयं को अधिकारी समझते हैं और उनको "राजा-महाराजा" होने की गलतफहमी है।

वस्तुतः, नौकर जनता के लिए है, जनता नौकरों के लिए नहीं होती। नीच नौकरी यूँ ही नहीं कहा।
 इतने सालों, चवन्नी चल गई सो चल गई,  डॉ आंबेडकर ने 6 दशक पहले ही इस स्थिति का जिक्र कर दिया था।
उन्होंने अपने भाषण "सफल लोकतंत्र के लिए आवश्यक बातें" में यह कह दिया था कि आप जनता के नौकर बनने जा रहे हैं, कुछ और सोच लिया तो परेशानी आपको होगी।

एक फैशन के तहत, हरेक बहुसंख्यक समुदाय के रीति रिवाज पर मख़ौल खड़ा करना, विद्रूपता और विडंबना की पराकाष्ठा तक पहुंच चुका है ।
जहां बोलना चाहिए वहाँ चुप्पी और जहां नहीं बोलना वहां एक रबर स्टैंप के सहारे मुख्य समाज को लाठी से हाँकोगे तो यही गत होगी।

  जनता बार बार चेतावनी दे रही है। "औकात में रहो!"
तुम हमारे लिए हो, हम तुम्हारे लिए नहीं।

बात केवल वायु प्रदूषण अथवा धुंए की नहीं है, बात रबर स्टैंप का उपयोग करने वाले के चरित्र और नीयत की है।

पाखण्ड की पराकाष्ठा देखिए, यदि दिल्ली में एक भी पटाखा नहीं फूटता, तो भी इन दिनों यह लेवल रहने ही वाला था। बडी सफाई से इसे हिन्दू त्यौहार की तरफ मोड़ दिया। जनता नहीं मानी, अब भुगतो।

*प्रश्न:-, क्या हवा की खराबी से पब्लिक को नुकसान नहीं है?*
उत्तर:- नुकसान है। केवल हवा ही क्यों, सभी प्रकार के प्रदूषण की बात कीजिए।

कुर्बानी से बहते रक्त, जल और विचलित करने वाले दृश्य भी तो प्रदूषण हैं।

लाउडस्पीकर से धमकियां देना किस प्रदूषण में आएगा?
दुनिया भर के टॉवर से होते रेडिएशन, डीजे के विकिरण इत्यादि से पशु पक्षियों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ने वाले असर की चर्चा क्यों नहीं होती?

टीवी,अखबार में छपते कामोत्तेजक विज्ञापन और नकारात्मक खबरें प्रदूषण नहीं है क्या?

 वामपंथियों ने जो साहित्यिक प्रदूषण किया है, उसकी बात कौन करेगा?

नन्हें मुन्ने बच्चों के पाठ्यक्रम कचरे से भर दिए गए, किशोर लड़कों को निठल्ला बनाने वाली पाठ्यपुस्तकें, युवाओं को लक्ष्यहीन लल्ला लल्ली खेलने की एजुकेशन देती यूनिवर्सिटी और उनमें जमे बूढ़े, खूसट, मुफ्तखोर, सनकी प्रोफेसरों की कुंठाओं का भयंकर प्रदूषण ..... क्या ये प्रदूषण नहीं है?

हवा का प्रदूषण एक माह बाद मिट भी जाएगा,
 यह वैचारिक_प्रदूषण कहाँ तक जाएगा.... कोई अनुमान भी है किसी को??