देश में समान नागरिक संहिता एक देश एक कानून एक बार फिर से चर्चा में है जिसके तहत संविधान में समान नागरिक संहिता लागू करने के स्पष्ट उद्देश्य के बावजूद राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मुद्दे पर पिछले 68 वर्षों मैं बनने वाली सरकार सीधे तौर पर इस पर कोई भी कदम उठाने से बचती रही हैं लेकिन मौजूदा हालात में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद अब उम्मीद जताई जा रही है कि 4 नवंबर को दिल्ली हाईकोर्ट में सरकार की ओर से अब स्थिति साफ की जाएगी इस दिन सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने वाली याचिका पर अपना पक्ष रखेगी दिल्ली हाईकोर्ट में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और वकील अश्वनी उपाध्याय ने एक याचिका दाखिल कर की थी ।जिसमें एक देश एक कानून संहिता लागू करने की मांग की है ।
इस याचिका पर हाईकोर्ट में गत 31 मई को केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर 4 सप्ताह में जवाब मांगा गया था 8 जुलाई को मामला सुनवाई पर था लेकिन सरकार ने इस मामले पर जवाब देने के लिए कोर्ट से समय मांगा था जिसके बाद कोर्ट ने सरकार को समय दिया था इसके बाद 27 अगस्त को केस लगा और दूसरी बार भी सरकार ने समय मांग लिया अब 4 नवंबर को यह मामला फिर सुनवाई पर लगा हुआ है बदली परिस्थितियों में यह माना जा रहा है कि सरकार इस बार कोर्ट में अपना रुख साफ कर देगी अश्वनी उपाध्याय की याचिका पर नोटिस के बाद अभिनव बेरी की ओर से भी एक नई याचिका इसी मुद्दे पर दाखिल की गई है वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के उपाध्यक्ष याचिका का विरोध करते हुए कोर्ट से उसे भी मामले में पक्षकार बनाए जाने की मांग की गई है यह एक बड़ा गणित है जो लोगों की समझ से परे है सरकार समान नागरिक संहिता मूलता सभी धर्मों में पर्सनल ला में समानता लाने का मुद्दा है इस पर संविधान निर्माण के समय भी काफी बहस और चर्चा हुई थी जिसमें इसे मौलिक अधिकारों में शामिल करने की बात थी हालांकि समान राय नहीं बनने के बाद इस नीति को निदेशक तत्वों में रखा गया था नीति निदेशक तत्व लागू करना सरकार पर निर्भर करता है सरकारों की ओर से आज तक इस पर सीधे तौर पर कोई कार्यवाही नहीं की गई और ना ही इसे लागू करने का कोई प्रयास किया गया अभी देश में सभी धर्मों के विवाह और तलाक के कानून अलग-अलग हैं और संपत्ति पत्र कथा के कानून भी अलग-अलग हैं समान नागरिक संहिता का मतलब है कि देश के सभी नागरिकों के लिए शादी संपत्ति और उत्तराधिकार के समान कानून लागू होना है।
सुप्रीम कोर्ट कई बार इस विभिन्न धर्मों के शादी तलाक या गुजारा भत्ता के मुकदमों में समान नागरिक संहिता की वकालत कर चुका है सबसे पहले 1985 में शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी बात कही थी इसके बाद 1995 में सरला मुद्गल के मामले में और के 2003 में भी एक केस में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की तरफदारी की थी एक बार फिर से कोर्ट ने किस का पक्ष लिया है और अब तक सरकार द्वारा इस दिशा में कुछ नहीं किए जाने पर भी टिप्पणी की है आपको बताते चलें कि देश के एकमात्र राज्य गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है लेकिन वहां कुछ सीमित अधिकारों को ही संरक्षण दिया गया है कुल मिलाकर कोर्ट में बारिश याचिका में देश में एक बार फिर से समान नागरिक संहिता पर चर्चा गर्म कर दी है।
रामजी पांडे की रिपोर्ट