जब पित्र आप पर खुश तो अब सभी देवता आपसे प्रसन्ना होते हैं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मृत्यु के बाद जीव का शरीर से नाता टूट जाने के बावजूद भी उसका सूक्ष्म शरीर बना रहता है वह सोच में शरीर अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रतिनिधि चाहता है और प्रतिनिधि वही हो सकता है जो योग्य हो विश्वास पात्र हो और उसमें अपनत्व की भावना हो प्रत्येक व्यक्ति अपनी संतानों से यह अपेक्षा रखता है कि वे सदाचारी हो सांसों में श्राद्ध करने का अधिकार भी उसी को दिया है जो सर्वथा योग्य पात्र हो श्राद्ध एवं तर्पण यह दोनों शब्द चित्र कर्म के प्रयुक्त होते हैं जिस गया से सत्य धारण किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं और जो भी वस्तु श्रद्धा पूर्वक पितरों को लक्ष्य करके उन्हें अर्पण की जाती है अथवा कार्य किए जाते हैं उसे श्राद्ध कहते हैं जिसमें इधर प्राप्त होते हैं उसे तर्पण कहते हैं प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ व सूत्र कार ने कहा है कि जिस समय स्वाहा बोलकर देवताओं के लिए हवन पदार्थ अग्नि में डाला जाता है उसी प्रकार पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक स्वधा बोलते हुए जो प्रदान किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं इस स्कंद पुराण के अनुसार श्राद्ध में श्रद्धा ही मूल है गरुड़ पुराण में कहा गया है कि पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊंचा होता है अतः जब कभी भी देवताओं के निमित्त कोई कार्य संपादित होते हैं तो उनके पूर्व ही चित्रकार श्राद्ध किया जाता है पंडित गिरजा शंकर शास्त्री के अनुसार पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊंचा है अतः जब कभी भी देवताओं की निर्मिती कोई कार्य यज्ञ आदि संपादित होते हैं तो उससे पूर्व पितरों को याद किया जाता है अर्थात पिता प्रसन्न हो तब सब देव प्रसन्न होते हैं अब प्रश्न उठता है कि क्या किया गया श्राद्ध पितरों को प्राप्त होता है यदि हां तो इसका प्रमाण क्या है इस विषय में आचार्यों देशों की मान्यताओं अनुसार आपने चाहे कितने भी दोस्त क्यों ना हो लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपनी संतानों में आमतौर पर यही अपेक्षा रखता है कि वह सदाचारी होंगे इसलिए पितर अपेक्षा रखते हैं और कहते हैं कि जब आपका शरीर नहीं था बाय रूप में भटक रहे थे तब माता-पिता के द्वारा उन्हें के अंश से शरीर की प्राप्ति हुई बता जब हम लोग स्कूल से सोच में चले गए हैं तब आपका कर्तव्य है कि पितरों की तृप्ति हेतु तर्पण एवं शादी अवश्य करें पितरों की संख्या ग्रंथों में अनेक कही गई है लेकिन मुख्य साथ भीतर माने जाते हैं जिन्हें देवी पिता कहा जाता है सुखाना आंद्रेस सोश सोम बैराज अग्नि स्वाद तथा बाहर पद आरंभ और आदिकाल से श्रद्धा की परंपरा चली आ रही है बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के वर्णन है कि राजा दशरथ के दाह कर्म के पश्चात भरत जी ने 12 दिन तक साथ किया था भरत द्वारा पिता की मृत्यु का समाचार सुनने के पश्चात भगवान श्री रामचंद्र जी ने भी मंदाकिनी नदी में जाकर पिता के निमित्त पिंडदान कर दान किया था इसलिए हमें अपने पितरों सुमिरन करते हुए उनके श्राद्ध पक्ष में तर्पण और पिंडदान अवश्य करना चाहिए।
श्राद्ध पक्ष में करें अपने पितरों को प्रसन्न क्योंकि पित्र प्रसन्न होते हैं तो सभी देवता भी प्रसन्न होते हैं
जब पित्र आप पर खुश तो अब सभी देवता आपसे प्रसन्ना होते हैं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मृत्यु के बाद जीव का शरीर से नाता टूट जाने के बावजूद भी उसका सूक्ष्म शरीर बना रहता है वह सोच में शरीर अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रतिनिधि चाहता है और प्रतिनिधि वही हो सकता है जो योग्य हो विश्वास पात्र हो और उसमें अपनत्व की भावना हो प्रत्येक व्यक्ति अपनी संतानों से यह अपेक्षा रखता है कि वे सदाचारी हो सांसों में श्राद्ध करने का अधिकार भी उसी को दिया है जो सर्वथा योग्य पात्र हो श्राद्ध एवं तर्पण यह दोनों शब्द चित्र कर्म के प्रयुक्त होते हैं जिस गया से सत्य धारण किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं और जो भी वस्तु श्रद्धा पूर्वक पितरों को लक्ष्य करके उन्हें अर्पण की जाती है अथवा कार्य किए जाते हैं उसे श्राद्ध कहते हैं जिसमें इधर प्राप्त होते हैं उसे तर्पण कहते हैं प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ व सूत्र कार ने कहा है कि जिस समय स्वाहा बोलकर देवताओं के लिए हवन पदार्थ अग्नि में डाला जाता है उसी प्रकार पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक स्वधा बोलते हुए जो प्रदान किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं इस स्कंद पुराण के अनुसार श्राद्ध में श्रद्धा ही मूल है गरुड़ पुराण में कहा गया है कि पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊंचा होता है अतः जब कभी भी देवताओं के निमित्त कोई कार्य संपादित होते हैं तो उनके पूर्व ही चित्रकार श्राद्ध किया जाता है पंडित गिरजा शंकर शास्त्री के अनुसार पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊंचा है अतः जब कभी भी देवताओं की निर्मिती कोई कार्य यज्ञ आदि संपादित होते हैं तो उससे पूर्व पितरों को याद किया जाता है अर्थात पिता प्रसन्न हो तब सब देव प्रसन्न होते हैं अब प्रश्न उठता है कि क्या किया गया श्राद्ध पितरों को प्राप्त होता है यदि हां तो इसका प्रमाण क्या है इस विषय में आचार्यों देशों की मान्यताओं अनुसार आपने चाहे कितने भी दोस्त क्यों ना हो लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपनी संतानों में आमतौर पर यही अपेक्षा रखता है कि वह सदाचारी होंगे इसलिए पितर अपेक्षा रखते हैं और कहते हैं कि जब आपका शरीर नहीं था बाय रूप में भटक रहे थे तब माता-पिता के द्वारा उन्हें के अंश से शरीर की प्राप्ति हुई बता जब हम लोग स्कूल से सोच में चले गए हैं तब आपका कर्तव्य है कि पितरों की तृप्ति हेतु तर्पण एवं शादी अवश्य करें पितरों की संख्या ग्रंथों में अनेक कही गई है लेकिन मुख्य साथ भीतर माने जाते हैं जिन्हें देवी पिता कहा जाता है सुखाना आंद्रेस सोश सोम बैराज अग्नि स्वाद तथा बाहर पद आरंभ और आदिकाल से श्रद्धा की परंपरा चली आ रही है बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के वर्णन है कि राजा दशरथ के दाह कर्म के पश्चात भरत जी ने 12 दिन तक साथ किया था भरत द्वारा पिता की मृत्यु का समाचार सुनने के पश्चात भगवान श्री रामचंद्र जी ने भी मंदाकिनी नदी में जाकर पिता के निमित्त पिंडदान कर दान किया था इसलिए हमें अपने पितरों सुमिरन करते हुए उनके श्राद्ध पक्ष में तर्पण और पिंडदान अवश्य करना चाहिए।